________________
जब इनका संग्रह विस्तृत होने लगा. तो प्रारंभ में उसे तीन आलमारियों में रखा जा सका, परन्तु वह तो निरन्तर वृद्धि की ओर अग्रसर था और उसे व्यवस्थित रूप देने के लिये किसी उचित स्थान की आवश्यकता का अनुभव होने लगा।
इस प्रसंग को बीच में छोड़कर अब हम संस्था के नामकरण की चर्चा करेंगे। अगरचन्दजी के पिता थे शंकरदानजी नाहटा । अगरचन्दजी से ठीक बारह वर्ष बड़े भाई थे अभयराज नाहटा जिनका जन्म वि० सं० १९५५ की चैत्र कृष्ण षष्ठी को बीकानेर में हुआ था । समस्त मानवीय गुणों से सम्पन्न यह वैश्य-वालक छोटी आयु में ही अपने से बड़ों के सम्मान का माजन बन गया था । साहित्य और धर्म में इसकी अपार रुचि और विलक्षण गति थी । परन्तु सुसंपन्न नाहटा परिवार भो इस अलौकिक सम्पदा को अपने पास अधिक समय तक नहीं रख सका। अभयराज रुग्ण हो गये। चिकित्सा के लिए उन्हें जयपुर ले जाया गया । डाक्टरों ने इनकी व्याधि को असाध्य घोषित कर दिया । सम्पूर्ण नाहटा परिवार पर विषाद के घनघोर बादल छा गये। गीता में अर्जुन ने दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूछे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं—'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृह' । सारा परिवार शोक-सागर में निमग्न है. पर स्थितप्रज्ञ अभयराज को विचलित करने की क्षमता किसमें थी? उनके लिये काल विकराल नहीं था। शरीर त्याग केवल वस्त्र बदलने के समान था । अभयराज जानते थे कि वे आसन्नमृत्यु हैं, पर उनके स्वाध्याय में, चिन्तन में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया । भीष्म पितामह शरशैया पर अविचलित थे. तो समझ में आता है कि उनके पास दीर्घायुष्य का अथाह अनुभव था, पर वाईस वर्ष का अभयराज यदि योगियों के समान देह त्याग करते हुए सबको अन्तिम प्रणाम कर जाये तो निःसन्देह विलक्षण, परम विलक्षण है ।
यह वज्रपात हुआ वैशाख कृष्णा सप्तमी वि० सं० १९७७ को जिसने नाहटा परिवार का न केवल कलेजा ही निकाल लिया. कुछ समय के लिये उसका विवेक भी छीन लिया ! बालक अगरचन्द, भंवरलाल जो उस समय लगभग दस वर्ष के थे. विद्याध्ययन से वंचित कर दिये गये । परिवार में अभयराज सर्वाधिक शिक्षित थे और वे इस प्रकार असमय में चले गये, तो परिवार में एक धारणा बन गई कि-पढ़ाई में आपां ने लैणियों कोनी।
सेठ शंकरदान इस पुत्र-रत्न के लिये कोई अनुपम स्मारक बनवाना चाहते थे, इधर अगरचन्द-भंवरलाल अपनी पांडुलिपियों को व्यवस्था करना चाहते थे अतः स्व० अभयराज नाहटा की स्मृति में अभय जैन ग्रंथालय की स्थापना की गई। ग्रंथालय पर लगे हुए शिलालेख में स्थापना का वर्ण १९७७ वि० सं० अंकित है, फिर भी यह वर्ष विचारणीय है । सं० १९८४ की बसन्त पंचमी पर जैन मुनि का बीकानेर में चातुर्मास हुआ और तभी नाहटा बन्धुओं को पाण्डुलिपि-संग्रह की प्रेरणा मिली थी। कुछ वर्ष ग्रन्थों के संग्रह में भी लगे तब कहीं ग्रन्थालय स्थापित करने की बात उत्पन्न हुई. अतः वि० सं० १९७७ को इस ग्रंथालय का स्थापना वर्ष नहीं माना जा सकता । यह हो सकता है कि सं० १९७७ में जब अभयराज की मृत्यु हुई तो सेठ शंकरदान नाहटा ने उनकी पुण्य स्मृति में कोई स्मारक स्थापित करने का संकल्प लिया होगा, अतः १९७७ को हम स्थापना वर्ष के स्थान पर संकल्प वर्ष कहेंगे तो समीचीन होगा । हाँ. श्री अभयराजजी की स्मृति में अभय जैन ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प सं० १९८२ में अभयरत्नसार प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन पं० काशीनाथ जैन ने किया था। इसके अतिरिक्त अगरचन्दजी के अग्रज मेघराजजी नाहटा के पुत्र केसरीचन्द नाहटा तथा अगरचन्दजी के ज्येष्ठपुत्र धर्मचन्द नाहटा
२ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org