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विपरीत, सांसारिक सुखों को गौण समझते हुए ये दोनों युवक प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण कार्य में मिशनरी उत्साह एवं जोश-खरोश के साथ जुट गए-एक ऐसी रुचि, जिसके कारण इनके साथी लोग इन्हें संसार से उपराम, साधु-सन्तों के समान समझकर अपनी मित्रता के अनुपयुक्त समझने लगे।
अब समस्या थी ग्रन्थ-संग्रह के श्रीगणेश की। ग्रंथ उपलब्ध कहां से होंगे? संयोगवश बम्बई हाईकोर्ट के एक वकील मोहनलाल दलीचन्द का 'कविवर समय सुन्दर' निबन्ध नाहटों ने देखा । आश्चर्य हुआ-एक वकील बम्बई में बैठकर समयसुन्दर पर इतनी विस्तृत जानकारी दे सकता है, तो हम पीछे क्यों रहेंगे। प्रोत्साहन का कारण था-रांगड़ी चौक में एक उपाश्रय का खुलना जो बड़ा खरतरगच्छ उपासरा कहलाता है. जिसके ट्रस्टी दानमलजी नाहटा व पूनमचन्दजी कोठारी थे। इससे प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन का सुयोग सहज था। बीकानेर के महावीर जैन मण्डल के ग्रंथालय का अवलोकन करते समय सं० १८०४ में लिखित एक गुटका मिला जिसमें समयसुन्दर की अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध थीं। युवकों का हौसला बढ़ा और वे द्विगुण उत्साह के साथ अपने कार्य में तल्लीन हो गए। समयसुन्दर की खोज करते समय अनेक ग्रन्थों को देखा। जिन कवियों की रचनाएँ श्रेष्ठ लगतीं उनकी नकल करके अपने संग्रह के लिए तैयार कर लेते। कवि के संबंध में देनेवाली आवश्यक टिप्पणियों को अपनी नोटबुकों में उतार लेते।
उन्हीं दिनों नाहटा बंधुओं ने देखा कि बड़े उपासरे में प्राचीन ग्रंथों के खंतड़ रखे हुए थे और उनका उपयोग ठाठे बनाने को किया जाने वाला था। यति मुकनचन्दजो आदि ने उस ढेर में से काम के कागज छांटकर अपने अधिकार में रख लिए थे। नाहटों ने उनको क्रय कर लिया। परिणाम सुखद निकला | काफी सामग्री उस ढेर में से प्राप्त हो गई। उसके बाद जहां कहीं भी ऐसी सामग्री की जानकारी मिलती, वे उसे लेने का प्रयत्न करते. निःशुल्क अथवा खरीदकर । बीकानेर से बाहर जाना पड़ता तो वहाँ भी जाने पर हर हालत में प्राचीन पांडुलिपियों की रक्षा का प्रयत्न करते। इस प्रकार की सामग्री में ग्रन्थों के बिखरे हुए पन्ने ही अधिकांश में होते थे । उन्हें ये दोनों अध्यवसायी युवक तरतीबवार रखकर ग्रन्थ को पूरा बनाने की कोशिश करते । जब ग्रन्थ पूरा हो जाता तो इनके हर्ष का पारावार नहीं रहता। इस प्रकार से पन्ने जोड-जोड़ कर इन्होंने अनेक बहुमूल्य ग्रन्थों की रक्षा कर उन्हें अपने संग्रह में सुरक्षित रख लिया।
यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन पाण्डुलिपियों को पढ़ने व उनका अर्थ लगाने में भी भंवरलालजी का अभ्यास स्व० अगरचन्दजी से भी अधिक है । रामचरितमानस में सीता अपने पति के साथ जाकर भी राम के साथ पूजी जाती है, जबकि उमिला सर्वथा अनबूझ पड़ी है। प्रायः उर्मिला जैसी स्थिति भंवरलाल नाहटा की है. पर चाचा-भतीजे में इतना स्नेह रहा कि भंवरलालजी को कभी इस बात का ध्यान ही नहीं आया कि उनका नाम अगरचन्दजी के बराबर चल रहा है या नहीं । अगरचन्दजी का नाम अधिक चलने का कारण संभवतः यही है कि भंवरलालजी अपने पारिवारिक व्यवसाय के साथ-साथ प्रेस कापी, प्रफ पठन, अनुवाद, नकलें, शब्दकोश सम्पादनादि तथा ग्रन्थ-संग्रह-कार्य दोनों ही सम्हालते थे, जबकि अगरचन्दजी व्यावसायिक कार्यों से लगभग पराङ्मुख हो गए थे।
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