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इस प्रतिमा की कायोत्सर्ग मुद्रा और धोती पहनने का ढंग, बसंतगढ़ पिण्डवाड़ा से बिल्कुल साम्य रखता है। उन्नत ललाट, लम्बी नासिका, चौड़े नथने और गोल भरा हुआ चेहरा है । आँखें लम्बी एवं दड़ी हैं । धुंघराले वाल एवं उष्णःश युक्त यह प्रतिमा काफी सुन्दर है फिर भी गुप्तकालीन प्रतिमा जैसा ओज नहीं है । इस प्रतिमा के हाथ लम्वे हैं जिन्हें आजानुबाहु कहा जाता है जो महापुरुषों के लक्षण में आता है। तीर्थकर के कर्ण भी लम्वे दर्शाए गए हैं, जो कि महापुरुषों के चिह्न हैं । ओठ छोटे हैं। स्थानीय भक्तों ने नकली नेत्र व नीचे लौह पीठिका भी लगा दी है।
इसी मन्दिर के परकोटे में स्थित शांतिनाथ जिनालय के मूलनायक पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा सं० १५४९ में श्री जिनसमुद्रसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित है। सं० १५८० में हेमविमल सूरि प्रतिष्ठित धातुमय यंत्रपट में शश्रृंजय आवू. गिरनार. नवपद, समवसरण, चौबीसी, ई.स विहरमानादि उत्कीणित हैं।
श्री महावीर स्वामी का मन्दिर ( वेदों का):
वसन्तगढ़ से प्राप्त प्रतिमा शिल्पी शिवनाग के सं० ७४४ (६८७ ईस्वी) के लेख से पता लगता है कि उसने दो प्रतिमाएं बनाई थीं। डा० उमाकान्त प्रेमचंद शाह ने वहीं से प्राप्त दोनों प्रतिमाओं को शिवनाग रचित माना है। इस प्रतिमा को भी समकालीन मानना उचित होगा क्योंकि इसका शिल्प एकदम उसी प्रकार का है।
इस मन्दिर में भी सकड़ों धातु प्रतिमाएं भण्डार में हैं जिसके पूरे लेखों के संग्रह व अध्ययन की महती अवश्यकता है। सं०१५३४ की सीमंधर प्रतिमा, सं० १५३१ का कलि कुण्ड यंत्र, सर्वतोभद्र यंत्र, दुरितारिविजय यंत्र, षोडशकरण यंत्र ( सं १९६३ दि० रत्नकीर्ति उपदेश से) ह्रींकार यंत्र ( सं०१५६९ रूद्रपल्लीय गच्छ प्र०), अष्टांग सम्यग्दर्शन यंत्र आदि कितने ही धातुमय कलात्मक उपादानों के साथ सं० १५२७ में भ० भुवनकीर्ति प्रतिष्ठित विशाल प्रतिमा सं० १७२७ उदयपुर में श्री सुमतिसागर सूरि . के उपदेश से बना सिंहासन भी यहाँ है जिसे सूत्रधार गणेश
और कंसारामान जी के पुत्र परताप ने बनाया है । अम्बिका, देवी की तं न प्रतिमाएं सं० १३५१. १३५५. १३८१ और १४६९ की प्रतिष्ठित है । चाँदी की चक्र दवरी देवी व नवपद यंत्रादि धातु की अनेक वस्तुएं हैं।
चिन्तामणि जी के मन्दिर के मूलनायक श्री आदिनाथ चतुविशति पट्टक भी दादा श्री जिनकुशलसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित और मण्डोवर के मूलनायक रूप में थी जिसे वच्छावतों के आदिपुरुष बोथरा बच्छराज जोधपुर से साथ लाये थे । मन्दिर की प्रतिष्ठा का अभिलेख सही है क्योंकि कामरां द्वारा बीकानेर पर अधिकार कर परिकर भग्न कर देने और सं० १५१२ में उसका जीर्णोद्धार का उल्लेख मूलनायक के परिकर के अभिलेख में होने से वीकाजी के राज्यकाल में प्रतिष्ठित होना निर्विवाद है। केवल वीक जी को राजा की पदवी नहीं थी। वह राजा की पदवी रायसिंह को मुगलसम्राट ने दी इससे मन्दिर की प्राचीनता को नकारा नहीं जा सकता। अपने राज्य में महाराजा राजा उपाधि हर कोई लिखते थे इस विषय में ग्रंथों की प्रशस्ति आदि से भी प्रमाणित किया जा सकता है। अस्तु ।
श्री अजितनाथ जिनालय :
यहाँ सं०१५२३ में मन्त्रीदलीय श्र.वक द्वारा निर्मापित और जिनहर्ष सूरि द्वारा प्रतिष्ठित गौतम स्वामी प्रतिमा व कुरुजांगल देश के सपादों नगर में सं० १६८८ में निर्मित पंठ पर ऊंची चौकी पर गुरु महाराज दोनों पांव नीचे कियेदैठे हैं। इसके अभिलेख में दिगम्बर साधु-साध्वियों के नाम व निर्माता का नाम भी है
श्री चन्द्रप्रभ जिनालय :
यहाँ अन्य धातु प्रतिमाओं के साथ अष्टदल कमलाकृति प्रतिमा सीरोही में निर्मित स्व० श्री जिनचन्द्र
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