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________________ रजतमय समवसरणादि: उपसंहार: बड़ौदा के नरसिंहजी की पोल में स्थित दादा पार्श्वनाथ जिनालय में एक चाँदी का विशाल समवसरण है। इसी प्रकार भारत के प्रत्येक नगर में विपुल सामग्री संप्राप्त है। कलकत्ता के पंचायती मन्दिर से विश्व विश्रुत कार्तिक महोत्सव की शोभायात्रा में धर्मनाथ स्वामी का जो समवसरण निकाला जाता है वह सं०१८९३ में हेमल्टन कम्पनी से बनवाया गया था । हेम रजत व मणियों से सुशोभित एवं मखमल-जरी से अलंकृत यह अदभुत कलाकृति है। इसके अतिरिक्त अन्य छोटे समवसरण, नौबत खाना, पट, लेश्या वृक्ष आदि अनेक कलामय वस्तुएँ हैं। फलधरा, पालने, ध्वजायें, त्रिगढ़े एवं सिंहासनादि सामग्री जैन मन्दिरों में प्रचर परिमाण में है । उपर्युक्त समवसरण के अनुकरण में कलाप्रेमी श्री भैरू दान जी कोठारी द्वारा बनवाया हुआ समवसरण बीकानेर में भी है। भारत के अनेक जिनालयों में समवसरण. कल्पवृक्ष. रथ, देवालय, सिंहासन, चतुर्दश महास्वप्नों के सेट आदि निर्माण द्वारा कला को काफी प्रोत्साहन मिला है। भगवान की अंगियाँ, स्वर्ण, रजत और रत्नजटित है जिसमें कला का प्रत्यक्ष दर्शन होता है । रजतमय प्रतिमाएं अनेक भाग्यशालियों ने निर्माण करायी थीं। मकसूदाबाद के दूगड़ परिवार ने शताब्दी पूर्व बहुत सी रजतमय प्रतिमाएं निर्माण कराई थी जो आज भी संप्राप्त है। नाकोड़ा जी की मूलनायक प्रतिमा का परिकर जतमय है। मन्दिरों की वेदियां, कपाट, सिंहासन, वंदनवार आदि अनेक मन्दिरों में विद्यमान हैं। इस प्रकार धातु प्रतिमाओं के विराट विहंगावलोकन से प्रमाणित है कि प्रतिमादि निर्माण में धातुओं का प्रयोग अति प्राचीनकाल से होता आया है। मथुरा के देव निर्मित वैद्ध स्तूप स्वर्ण रत्नमय धातु से निर्मित थे। धंधाणी में निकली हुई सम्प्रति चन्द्रगुप्त कालीन प्रतिमाएं. बम्बई म्यूजियम की कांस्य प्रतिमा, आकोटा की जीवंत स्वामी आदि की प्रतिमाए' वल्लभी. महड़ी, वसंतगढ़, बीकानेर आदि की गुप्तकालीन शिल्प परम्पर। युक्त प्रतिमाएँ दंगाल, उड़ीसा, बिहार से प्राप्त प्रतिमाओं में कुषाण, गुप्त, पाल और मध्यकालीन शिल्पमय पंचतीथियाँ. चौवीसी. त्रितीर्थी. अपरिकर इकतीर्थी आदि कला का विकास, उसमें विभिन्न देवी-देवता, भक्तगणादि का प्रवेश अपने आप में एक विशिष्ट अध्ययन की सामग्री है। विशाल से विशालतम और लघ से लघुतम प्रतिमाएं तथा समवसरण, सहस्रकूट, मेरुगिरि आदि शिल्प व यंत्र पटादि विधाए' मथुरा के आयागपट्ट की परम्परा को उजागर करने में सक्षम है। शिल्प शास्त्र वास्तुविद्या विषयक ग्रन्थों से इस विषय में अध्ययन प्रस्तुत करना एक स्वतंत्र शोध का विषय है। इससे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक व धार्मिक पूजा उपासना के अध्याय पर गम्भीर और मनोरंजक प्रकाश पड़ सकता है। यहाँ कुछ थोडी-सी यथाज्ञात सामग्री पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। आशा है विद्वान लोग इस उपयोगी विषय के शोधार्थ में सविशेष प्रवृत्त होंगे। ७२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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