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________________ प्रतिबोधार्थ उनकी तदाकार स्वर्णमूर्ति बनवाये जाने का वृत्तान्त पाया जाता है । खंडगिरि -उदयगिरि में हाथी गुम्फा के सुप्रसिद्ध शिलालेख में वर्णित कलिंगजिन आदिनाथ भगवान की जिस प्रतिमा को राजा नंद ले गया था. महामेघवाहन चक्रवर्ती सम्राट खारवेल मगध देश को जीत कर उस प्रतिमा को पुनः कलिंग में लाया । वह प्रतिमा अति प्राचीन और स्वर्णमय थी. ऐसा कई विद्वानों का मत है। परिलक्षित हैं। चौथी प्रतिमा पार्श्वनाथ भगवान की फणा मंडित है। जिसके नीचे द्विस्तरीय सिंहासन है। देह की ऊँचाई और मुखमंडल की सौम्यता देखते भ० ऋषभदेव और पार्श्वनाथ प्रतिमाएं चन्द्रप्रभ प्रतिमाओं से प्राचीन प्रतीत होती है। यहाँ एक और ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा है जो प्रथम के सदृश हो है । इन प्रतिमाओं में श्रीवत्स चिन्ह बने हुये हैं। भगवान ऋषभदेव की एक खङ्गासन प्रतिमा है जिसके स्कन्ध प्रदेशों पर केश-राशि फैली हुई है। मस्तक के पृष्ठ भाग में वृक्ष जैसा बना हुआ प्रतीत होता है । वम्बई के प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम में भ० पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ी हुई कांस्य-प्रतिमा है जिसका दाहिना हाथ खण्डित है। प्रभु के दोनों पैरों के बीच पृष्ठ भाग में रहा साँप मस्तक पर फण किये अवस्थित है। इस प्रतिमा का निर्माण काल ईसा के एक शताब्दी पूर्व होने का अनुमान किया जाता है । इसका प्राप्तिस्थान अज्ञात है । विद्वानों ने इसकी हड़प्पा और मौर्यकाल की कला से तुलना की है। यह प्रतिमा मोम साँचा विधि से ढली हुई हल्की प्रतिमा है। जैन साहित्य में प्रतिमा निर्माण के लिये बिंब भराना शब्द प्रचलित है जो धातु रस को साँचे में ढालने-भरने की प्रक्रिया से संबंधित हैं। नालन्दा के राष्ट्रीय संग्रहालय में एक अम्बिका की कांस्य-मूर्ति उपलब्ध हुई है, जो नौवीं-दसवीं शती की सुन्दर कृति है। देवी का दाहिना गोड़ा नीचे पादपीठ पर ... रखा हुआ है और वांये गोड़े पर बालक बैठा हुआ है। सिंह पर विराजमान देवी के पृष्ठ भाग में चतु. कोण पट्टिका लगी है। जिसके ऊपर उभय पक्ष में मकरमुख निकले हुए हैं । देवी के गले में हार-कुण्डल और एक शृंखला यज्ञोपवीत की भाँति दाहिने गोड़े पर आयी हुई है । मुखकमल के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल सुशोभित है, जो लंबगोल है। पटना म्यूजियम में चौसा से प्राप्त कतिपय कांस्य निर्मित जिन-प्रतिमाएं एवं एक अशोक वृक्ष और धर्मचक्र है। ये गुप्त और गुप्तोत्तर काल की मगध मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । दो चन्द्रप्रभ प्रतिमाएं सिंहासन पर स्थित हैं जिनके सिंहासन के ऊपर प्रभु के पृष्ठ भाग में अलंकृत स्तम्भ व अर्द्ध गोलाकार प्रभामण्डल है। स्तम्भों पर मकरमुख है जिनकी मुड़ी हुई जिह वा पूँछ की तरह वृत्ताकार हो गयी है। इस प्रभामण्डल पर चन्द्रलांछन बना हुआ है । प्रतिमा के ऊपरी भाग में लांघन इन्हीं प्रतिमाओं में देखा गया है। तीसरी प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की है जिसके स्कन्धों पर केश-राशि स्पष्ट है। प्रभु के नीचे पब्बासन या सिंहासन न होकर केवल दो पाये सामने धनबाद जिले के अलुआरा में २९ कांस्य मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जो पटना संग्रहालय में हैं। इनमें अधिकांश खगासन प्रतिमाओं की हथेलियां और अंगुलियाँ देह का स्पर्श करती है। ललाट पर उर्गा का अंकन है और पादपीठों पर विभिन्न पट्टिकाओं में अलंकरण के साथ-साथ लांधन बने हुए हैं । जिससे ऋषभदेव, चन्द्रप्रम, अजित. नाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, नेमिनाथ, पाव नाथ, महावीर और अम्बिका मूर्तियाँ सहज में पहिचानी जाती हैं । निर्माण शैली के आधार पर ये ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ की विदित होती हैं। मानभूम से प्राप्त एक आदिनाथ भगवान की कांस्यमूर्ति कलकत्ता के आशुतोष म्यूजियम में संरक्षित है, जो [ ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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