SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामी के समय भी जब राजा की नियत बिगड़ गई तो पंचम काल के भावी दृश्य को लक्ष कर देवी ने उसे प्रस्तरमय कर दिया । यहाँ भी पूर्वकाल के धातु शिल्प की बात स्पष्ट है। अभयकुमार ने मगध के परम्परागत मित्र आद्रक देश के युवराज आद्र कुमार को प्रतिबोध देने के लिये जिस प्रतिमा को भेजा था, वह भी अवश्य स्वर्णमय और रत्नजटित थी उसे गले, मस्तकादि पर धारण करने की चेष्टा व उहापोह में ही आद्रककुमार को जातिस्मरण होकर बोध प्राप्त हुआ था। धातु-प्रतिमाओं के सहस्रों की संख्या में प्रतिष्ठित होने के उल्लेख प्राचीन गुर्वावलियों एवं प्रवन्ध ग्रन्थादि में पाये जाते हैं। मुसलमानी काल में बहुत-सी प्रतिमाएं यवनों द्वारा नष्ट कर दी गई । चिन्तामणि जी के मन्दिर ( बीकानेर ) की आदिनाथ चौबीसी का परिकर कामरां ने नष्ट कर दिया, जिसका उल्लेख उक्त प्रतिमा के परिकर पर पाया जाता है । यवनों के भय से कुछ प्रतिमाएं मिट्टी में गाड़ दी गई । आज भी स्थान-स्थान पर खुदाई में प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त होती है । अमरसर के धोरे में प्राप्त प्रतिमाएं बीकानेर के म्यूजियम में प्रदर्शित हैं। अकबर का अधिकारी तुरसमखान सहस्राधिक प्रतिमाएं सं० १६३३ में सिरोही की लूट में लाया था जिन्हें वह गला कर सोना निकालना चाहता था। सौभाग्यवश अकबर ने गलाना मना कर उसे अपने खजाने फतेहपुर सीकरी में रख दी जिन्हें सं० १६३९ में मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत राजा रायसिंह के सहयोग से प्राप्त कर बीकानेर ले आये जो आज भी चिन्तामणिजी के मन्दिर में विद्यमान हैं । धातु-प्रतिमाएं न केवल गुजरात, राजस्थान में ही अपितु सारे भारत में संप्राप्त हैं । श्वेताम्बर, दिगम्बर उभय परम्पराओं में धातु-प्रतिमाएं निर्मित होती थीं । दक्षिणभारत में तो आज भी पर्याप्त परिमाण में जैन-जैनेतर धातु प्रतिमाएं उपलब्ध हैं । कहा जाता है कि बीकानेर महाराजा अनूपसिंह भी बहुत-सी धातु-प्रतिमाएं प्राप्त करके बीकानेर लाये थे जो बीकानेर के पुराने किले के बड़े कारखाने में स्थित तैंतीस करोड़ देवताओं के मन्दिर में देखी गई थीं। हमारे संग्रह में भी ऐसी विविध प्रतिमाएं विद्यमान हैं । बंगाल में मृण्मय मूर्तिकला तो दिनों-दिन विकसित होती जा रही है किन्तु धातुमय प्राचीन जैन-जैनेतर प्रतिमाएं भी पायो जाती हैं । जैन-प्रतिमाएं सहस्राब्दि पूर्व की अनेक सम्प्राप्त है । नेपाल और तिब्बत की कलापूर्ण बौद्ध प्रतिमाएँ तो प्रचुर परिमाण में पायी जाती हैं । प्राचीन काल से ही तीर्थयात्री संघों के साथ जो चैत्यालय-रथ रहते थे उनमें सुविधा की दृष्टि से अधिक धातु-प्रतिमाएं ही ले जायी जाती थीं। आज तो विदेशों में सैकड़ों जैन प्रतिमाएं सरकारी संग्रहालय में चली गई हैं पर प्राचीन काल में भी गई हुई प्रतिमाएं संप्राप्त हैं। आस्ट्रिया के हंगरी प्रान्त में एक खेत में जिन प्रतिमा व नवपद यंत्र निकले थे । दशवीं शती की एक जिन प्रतिमा केमला ( बुल्गेरिया) के राजग्राद म्यूजियम में सुरक्षित है, जो कभी किसी भारतीय समुद्र यात्री द्वारा वहाँ ले जायी गई प्रतीत होती है। यह प्रतिमा सिंहासन पर अकेली बैठी है । इसमें सिंहासन के स्तर व बीच में एक व नीचे वाले सिंहासन पर तीन आकृतियाँ हैं, नवग्रह नहीं। चीन के किसी बौद्धायतन में जिन-प्रतिमा पूजी जाने का उल्लेख मोतीशाह सेठ के समय का प्राप्त है । सत्रहवीं शतब्दी के वर्द्धमान पद्मसिंह चरित्र में उनके चीन से व्यापार का विशद् वर्णन मिलता है । धर्मप्राण साहसी जैन व्यापारी अपने आराध्य देव की प्रतिमाएं उपासना के हेतु साथ ले जाया करते थे। प्राचीनकाल से धातु-प्रतिमाओं के निर्माण होने की प्रथा सार्वत्रिक थी। न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों में भी प्रतिमा निर्माण में मिश्रित धातुओं से प्रतिमाएं निर्मित होती थीं। ईसा से पूर्व चतुर्थ शताब्दी में ब्रटस की कांस्यप्रतिमा का मस्तक रोम में प्राप्त हुआ था। भारत में तो लाखों वर्ष पूर्व भी मल्लिनाथ चरित्र में पूर्वजन्म के मित्रों के ५४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy