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________________ रूप वाली प्रतिमाओं की फसल उतरने लगीं और वह सजीवता और भाव वैभव धारा जो गुप्तकाल में प्रवहमान हो अपने उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हुयी थी, क्रमशः ह्रास की ओर गतिशील हो गई । मथुरा की प्राचीन कला में हम जहाँ अनेक विधाएँ प्रतिमाओं को आयागपट्टों की, परिकरों की व प्रतीक शिल्प आदि की पाते हैं हमारा हृदय मयूर उन्हें देखकर नाचने लगता है । गुप्तकाल में आकर उनमें और उन्मेष जुड़े । शालीनता, सुकुनारता, सुघड़ता, प्रमाणोपेत लचक व भावमंगिया और वैभवशाली साज-सज्जा प्रकृति प्रेरित दृश्यावली जो इस काल में पारण खण्डों में उत्तरी सदा के लिए अपना वैशिष्ट्य जन-मानस के हृदय पर इतिहास के पृष्ठों पर मुद्राङ्कित कर गईं। कला- विकास की प्रवहमान साधना ने वास्तुविद्यातक्षणकला की प्राशलता में निखार ला दिया । समग्र देश में वह कला अपने उन्नत शिखर पर आरूढ़ हुई पर प्रांतीय विशेषताओं ने, रूढ़ियों ने उस सुकुमारता में ह्रास लाकर क्रमशः वने शास्त्र नियमों के अनुकरण करते हुए भी नवीन शैली प्रविष्ट कर रही। पात्राण-प्रतिमाओं, परिकरादि विधाओं में जो परिवर्तन, विकास हुआ वह धातु प्रतिमादि में भी आना स्वाभाविक था । अलग-अलग प्रान्तों से प्राप्त प्रतिमाओं में इतना अधिक वैविध्य आया और निर्देशकों की सूचनानुसार, रुचि अनुसार प्रकारों का प्राचर्य जो दृष्टिगोचर होता है, आश्चर्यकारी है। . धातु प्रतिनाओं में चौवीसी ही लें तो उनके क्रम में अनेक विधाएँ आई केन्द्रीय प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य प्रतिमाएँ कहीं द्वितीय पंक्ति में कहीं तोरण पट्ट के ऊपरी भाग में, कहीं कक्ष में, कहीं सीधी सरल पंक्ति में, कहीं गोलाकार में निर्मित हुईं। पंचतीर्थी, त्रितीर्थी, इकतीर्थी, सपरिकर आदि प्रतिमाओं में कितने ही प्रकार के प्रतिहार्यो के प्रकार भेद, गगनस्थित गन्धर्वों, किन्नरियों, पार्श्वस्थित इन्द्रादि, चामरधारी पुरुष, स्त्रियों में शासनदेवियों और Jain Education International यक्षों के विभिन्न प्रवेश ने नवग्रह अष्टग्रह के पूर्ण विक सित और संक्षिप्त रूप और स्थान परिवर्तन में प्रतिमा के पद्मासन, सिंहासन, लांछन, देवी-देवताओं के अलंकारआयुध आसन मुद्रा आदि के परिवर्तन और स्तम्भों, तोरण, पाये, आधार, प्रभामण्डल सम्पूर्ण प्रतिमा के आकार-प्रकार और अंग-विन्यास में जो समय-समय पर परिवर्तन आये और देश में सर्वत्र वह शिल्प अपनी-अपनी क्षेत्र मर्यादा के अनुसार पल्लवित पुष्पित हुआ और उसमें असंख्य उन्मेष जुड़ते गये । लेप्यमय वालुकामय प्रतिओं के निर्माण का हम अनेक कथानकों में उल्लेख पाते हैं । रामायण काल में बनी वालुका की प्रतिमा भी सप्रभाव होकर चिरस्थायी हो गई। तथा ओसियाँ आदि की प्रतिमा के वालुकामय होने की प्रसिद्धि है । इन्हीं विधाओं को हम धातु के माध्यम से साकार हुआ पाते हैं पर धातुमय वस्तुएँ भी अनेक वार मट्टी में गलकर नूतन पर्याय में परिणत हो गई। इतिहास के पृष्ठों में जितनी सोना, चाँदी, पीतल आदि की प्रतिमाएँ निर्मित होने का हवाला पाते हैं, वे अब कहाँ उपलब्ध हैं । उन्हें अवश्य ही गला कर ठिकाने लगा दिया गया. इसमें • दो मत नहीं है । पाषाण-प्रतिमाओं को यवनों ने तोड़ा और उनके टुकड़े गल नहीं सकने के कारण मस्जिदों मकानों में चिन दिये गए, चूर-चूर कण-कण हो गए, सड़कें विछा दी गई फिर भी जो खण्ड वचे आज भी खुदाई में या खण्डहरों में प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं । मालदा ( बंगाल ) की आदीना मस्जिद जो कभी आदिनाथ भगवान का वाचन जिनालय था की दिवालों में अखण्ड जिन प्रतिमाओं को उल्टा चिन कर कुरान की आयातें लिख दो गई उनके प्राचीन मस्जिदों में लगे उपदान इसके साक्ष्य हैं। मथुरा तीर्थ कल्प से विदित होता है कि वहाँ का बौद्ध स्तूप कुबेरादेवी ने मेरु पर्वत की स्थापन स्वरूप स्वर्ग और मणिरत्नों से निर्माण किया । कालान्तर में श्री पार्श्वनाथ [ ५३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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