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________________ धातुमय जैन प्रतिमाएं थीं। गृह चैत्यालयों में सुरक्षा का प्रबन्ध अधिक था. अतः सोने-चाँदी आदि धातुमय विम्व वहीं अधिकतर पूजे जाते थे। काल के प्रभाव से अधिकांश गृह-चैत्यालयों की प्रतिमाएं सार्वजनिक मन्दिरों में आ गई और थोड़े से घर देहरासर रह गये । राजस्थान के घरों में 'मन्दिरी' संज्ञक कक्ष जो आंगन के कोने में शाल के पास में बनता था, वह उसी प्रथा का स्मारक है। आज भी कुछ लोग उसमें चित्र, गट्टाज एवं कुलदेवियों की स्थापना रखते हैं परन्तु वह उपासना-गृह की उपयोगी पद्धति अब प्रायः लुप्त हो जैनागम, इतिहास और कथा साहित्य के परिशीलन गई है। से स्पष्ट फलित होता है कि आत्म-कल्याण के हेतुभूत जिन-प्रतिमाएं जो लेप्यमय, पापाणमय. रत्नमय प्रबल निमित्त कारण जिन-प्रतिमादि का वन्दन -पूजन वनती थीं उनमें विविध प्रकार के प्रस्तर उपयोग में लिये अनादिकाल से होता आया है । देवलोक एवं नन्दीश्वर द्वीप जाते थे। जहाँ जिस जाति के पत्थरों की खाने निकट थीं आदि के शाश्वत चैत्य इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जिनेश्वरों उन्हीं पत्थरों की शिल्पियों ने सुकुमार हाथों द्वारा छेनी से में ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिपेग और वर्द्धमान चार नाम घटित कर हृदय की भाव-उर्मियों की अभिव्यक्ति करके शाश्वत हैं जो हर चौबीसी में एकाधिक अभिहित होते हैं। अपनी साधना व्यक्त–साकार की। किसी-किसी शिल्पी ने भरतक्षेत्र में कालचक्र के आरों के परिवर्तन से कृत्रिम अपने जीवन में केवल इनी-गिनी प्रतिमाएं ही निर्माण की (अशाश्वत) जिनालय-जिनविम्ब सीमित काल तक ही परन्तु उनमें अपने हृदयगत भाव-धन को इतना उड़ेल टिक सकते हैं, पर देवलोक व इतर क्षेत्रों में असंख्य वर्ष दिया है कि दर्शक मुग्ध होकर बाह्य भाव विस्मृत कर प्राचीन जिन-विम्बों की अवस्थिति सर्वविदित है । वाङ्मय अन्तलीक में विचरण करने लगता है । कई स्थानों की में वर्णित परम्परागत प्रवादानुसार वर्तमान में भी चतुर्थकाल प्रतिमाओं में इस प्रकार का आकर्षण और सातिशयता हम की प्रतिमाएं अनेक स्थानों में संप्राप्त हैं। जिन-प्रतिमाएं प्रत्यक्ष देख पाते हैं । वस्तुतः पाषाण खण्ड के अन्दर प्रतिमा पाषाणमय. मृण्मय, स्वर्ग-रजत-पित्तलादि अष्ट धातुमय, तो छिपी पड़ी है. शिल्पी उसके बाहरी स्तर को हटा कर काष्ठमय और रत्नमय आज भी पायी जाती हैं। राजा- सही रूप का प्रगटीकरण करता है। जैसे हृदयगत भावों को महाराजाओं* और सम्पन्न श्रावकों के घरों में ही नहीं प्रायः ग्रन्थकार शब्द देह में ढालकर, चित्रकार अपनी मनोगत हर श्रावक के घरों में गृह-चैत्यालय होते थे और उनमें कल्पना को चित्ररूप में साकार करने का उपक्रम करता है. अधिकांश प्रतिमाएँ धातुपय एवं रत्नमय ही रहती थीं। वही वात प्रतिमा शिल्पी की शिल्प साधना में है। यही वस्तु सार्वजनिक जिनालयों के द्वार खुले रहते हैं। उनमें पाषाण- हम पाते हैं अनेक प्राचीन प्रतीकों में, परन्तु आज के यंत्र. मय प्रतिमाओं का आधिक्य था। आभूषण, मुकुट, कुण्डलादि युग की भाँति मध्यकाल में भी जहाँ कलाकार का हृदय और वस्तुएं विशेष पवौं में धारण कराये जाते थे और भण्डार मस्तिष्क भावों की गहराई में न उतर कर केवल हाथ ही की चाबियाँ कुंचिक, गोष्टिक आदि श्रावकों के घरों में रहती काम करने लगे, वहाँ कारखानों के उत्पादन की भाँति बाह्य * नगरकोट-कांगड़ा के राजमहलों में गृह-चैत्यालय था जिसमें स्थित रत्न-प्रतिमाओं के दर्शन करने का उल्लेख जयसागरोपाध्याय ने 'विज्ञप्तित्रिवेणी' में किया है। मैसूर नरेश के यहाँ भी गृह-चैत्यालय था। ५२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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