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हजार वर्ष पुराने प्रमाणों को अमान्य कर २५ वर्ष के दिये हुए नाम को ऐतिहासिक महत्व और प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिये एक प्रबल प्रमाण बतलाना, कोई भी अर्थ नहीं रखता।
पृष्ठ ३० में 'महावीर और बुद्ध काल में केवल एक ही पावा थी' लिखा है-वह भी जैन साहित्य को अजानकारी का द्योतक है । केवल बौद्ध ग्रन्थ में एक पावा का उल्लेख होने से ही उस समय एक पावा थी यह लिख देना उचित नहीं है । ३ पावा के सम्बन्ध में हम पहले ही लिख चुके हैं।
पृ० ३२ में महावीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद में कल्पसूत्र की रचना हुई लिखा, यह भी सही नहीं है। वस्तुतः ९८० वर्ष बाद तो शास्त्र पुस्तकारूढ़ हुए थे, कल्पसूत्र की रचना तो श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी की है जो भगवान महावीर के १७० वर्ष बाद ही हुए हैं।
पृ० ३३ में सठियांव शब्द को चैत्यग्राम का अपभ्रश मानते हैं। पृ० ४२ में सठियांव को श्री पावा का अपभ्रंश बतलाना भी केवल मनोकल्पना है और भाषा-विज्ञान की अनभिज्ञता का सूचक ।
पृष्ठ २३ में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मिट्टी का मुहर को बतलाया गया है। जिसे वे 'विशिष्ट राजा या अमात्य का मुहर' और 'इस स्थान का नगर होना सिद्ध करती है' बतलाते हैं । पर पहली बात तो यह है कि यह मुहर कोई भगवान महावीर के समय की नहीं है । उसके पढ़े गये चार अक्षरों का अर्थ म से मल्ल, ह से हस्तिपाल, ल से लेखक, या ला राजा, अ से अपापा-अमात्य यह मन कल्पित अर्थ कर दिया गया है। पृ० २३ में पटना संग्रहालय के निर्देशक ने इस मुहर को गुप्तकाल से पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी
और लखनऊ तथा कलकत्ता संग्रहालय के निर्देशक ने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का बतलाया है. लिखा है तव उसमें हस्तिपाल का नाम हो ही कैसे सकता है। इसी तरह अपापा यह नगर का नाम जैन मान्य है. बौद्ध ग्रन्थों में तो यह नाम ही नहीं मिलता। अतः उस समय इस स्थान का पावा नाम ही था मध्य पावा नहीं। वास्तव में सरावगीजी की यह कल्पना मात्र है। राजाओं की मुहर मिट्टी की नहीं हुआ करती । न तो यह 'मुहर भगवान महावीर के समय जितनी प्राचीन है और न उन । अक्षरों के अर्थ ही वे जो निकालते हैं सही हैं।
पृ० २६-२७ में मज्झिमा का अर्थ मध्य देशवर्ती कहना भी सर्वथा गलत है । मध्यदेश की सीमा के लिये पृ० ३३ में कल्पसूत्र के नामों से जो प्रमाण दिया है वह न तो कल्पसूत्र का पाठ है और न उसका मध्यदेश की सीमा सूचक अर्थ ही है। वास्तव में वह वृहत्कल्प सूत्र का पाठ है जिसमें साध साध्वियों
का विहार कहाँ-कहाँ कल्पता है उसकी सीमा बतलायी . है । यह मध्य देश की सीमा सूचक नहीं है ।
पृ०५८ में 'पावा के मल्ल महावीर के और कुशीनगर के मल्ल बुद्ध के अनुयायी थे' लिखा है पर उस पावा के मल्लमहावीर के अनुयायी थे, इस बात का प्रमाण क्या है? आगे लिखा है कि हरिवंश पुराण के वर्णन से ऐसा लगता है कि "भगवान महावीर विहार करते हुए बार-बार मध्य प्रदेश की ओर आते थे।" पर यह लिखना सर्वथा गलत है । उनके विहार चौमासों की श्वेताम्बर जैनागमों में जो सूची मिलती है उससे मध्य-प्रदेश की ओर बार-बार जाना सिद्ध नहीं होता।
पृ०६३ में मध्यम पावा वर्तमान देवरिया जनपद में कुशीनगर से प्रायः १२ मील दक्षिण पूर्व वैशाली की दिशा में थी लिखा है पर बौद्ध ग्रन्थों में जब 'मध्यम' शब्द का प्रयोग ही नहीं है तो उस पावा को मध्यम पावा बतलाना. कल्पना मात्र है।
इसी पृष्ठ में प्रतिक्रमण पीठिका के दण्डक प्रकरण का पाठ दिया है । उसमें 'सहाए' शब्द का अर्थ 'संरक्षित
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