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________________ स्थिति को जैनी भूल चुके थे।" सरावगी जी का यह लिखना इतिहास की बड़ी मूल है, क्योंकि ईसा की बारहवीं शताब्दी तक मुसलमानों का आतंक इन क्षेत्रों में नहीं हुआ था । मुसलमानी साम्राज्य तो दिल्ली में भी वारहवीं शती के अन्त में स्थापित हुआ था । बारहवीं शताब्दी में नहीं, चौदहवीं शताब्दी में उनका आतंक माना जा सकता है। इसी तरह पन्द्रहवीं शताब्दी तक वर्तमान पावापुरी को निर्वाण क्षेत्र की मान्यता होने की बात भी सही नहीं है, क्योंकि सन् १२९५ में खरतरगच्छ के मुनियों और संघ ने वर्तमान पावापुरी को यात्रा की थी। उस समय वह निर्वाण स्थान के रूप में परम्परा मान्य ही था, अतः १५वीं शती की बात सथा गलत है । सरावगी जी सठियांव फाजिलनगर को ही बौद्ध ग्रन्थों के आधार से पावा होने का जगह-जगह लिखते हैं पर वह भी बौद्ध ग्रन्थों एवं भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार ठीक नहीं है क्योंकि पावा कुशीनगर से तीन गव्यूति दूर थी । गव्यूति का अर्थ भरतसिंह ने पौन योजन, आजकल की गणना में करीव छः मील बतलाया है जबकि सरावगीजी ने १२ मील बताते हुये सर्वत्र 'सठियाँव' की पुष्टि की है । 'तीन गव्यूति' का अर्थ यदि पौन योजन और छः मील डा० भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार सही है तो सठियांव और फाजिलनगर के हवाई किले तो हवा में ही उड़ जाते हैं क्योंकि वह तो १२ मील दूर है । । सरावगीजी ने पृष्ठ २१ में लिखा है कि वर्तमान पावापुरी में कोई पुरानी चीज नहीं मिलती। जो भी है गुप्तकाल के बाद की है, इससे इस पावापुरी की अर्वाचीनता सिद्ध होती है पर जिस स्थान को वे पावा बतला रहे हैं, वहाँ भी तो ऐसी कौन-सी जैन सामग्री प्राप्त है। वर्तमान पावापुरी में कुछ वर्षों पूर्व पर्याप्त पुरातत्त्वावशेन इधर-उधर बिखरे पड़े थे और कुछ अब भी वहाँ हैं । जलमंदिर जो वर्तमान में मकराने ७६ ] Jain Education International पत्थर से जड़ा हुआ है वह तो केवल ऊपरी सजावट है. उसके नीचे वे ही प्राचीन बड़ी-बड़ी ईंटें लगी हुई हैं। जब यह मन्दिर बन रहा था तो हमने स्वयं उन प्राचीन ईंटों को देखा है जो पुरातत्वज्ञों की दृष्टि से दो हजार वर्ष से भी प्राचीन हो सकती है। इसी प्रकार वर्तमान समवसरण मन्दिर में एक प्राचीन स्तूप और कुआँ है। जिनप्रभसूरिजी के सन् १३३५ के उल्लेखानुसार इसी पावापुरी में नागमण्डप था, जहाँ जनेतरों का मेला भी लगता था। वहाँ के कुएँ से पानी लाकर दीवाली के दिन बिना तेल घी के दीपक जलाते थे । सरावगीजी ने पृष्ठ २२ में लिखा है कि पावा और पुरी दो अलग-अलग स्थान हैं। पावा ग्राम पुरी से प्रायः शामील उत्तर की ओर है, पावा में जैनों का कोई स्थान नहीं है, पुरी में ही दिगम्बर श्वेताम्वर मन्दिर और श्वेताम्बरों द्वारा निर्मित एक समवसरण है। पर सरावगीजी प्राचीन पावापुरी की समृद्धि और विशालता को भूल गये हैं। || मील का अन्तर तो साधारण वात है, भगवान का समवसरण भी योजन के विस्तार में होता था वर्तमान समवसरण मन्दिर पावा के समीप ही है। भगवान महावीर का निर्वाण पावा में हुआ और उसके समीप ही अग्नि-संस्कार हुआ। इसलिए वह स्थान पुरी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। दोनों स्थान पहले एक ही नगर के भाग थे फिर बीच में वस्ती कम हो जाने से दोनों का अलगाव हो गया। डेढ़ मील की दूरी उस प्राचीन विशाल पावा के क्षेत्रफल को देखते हुए कुछ भी नहीं है । पृ० २२ में ही वे सठियांव के समर्थन में एक प्रमाण उपस्थित करते हैं । वहाँ सन् १९४६ में बाबा राघवदास ने पावानगर महावीर इण्टर कालेज स्थापित किया। जिस कालेज की स्थापना हुए २५ वर्ष ही हुए हैं उसमें पावा नगर और महावीर का नाम जोड़ देने मात्र से वह भ० महावीर का निर्वाण क्षेत्र कभी मान्य नहीं हो सकता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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