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________________ पावापुरी, कृत्रिम या स्थापित तीर्थ न होकर परम्परागत मान्य सही तीर्थ सिद्ध होता है। हो, पर जैन संघ उन प्राचीन स्थानों में भी रहा अवश्य है। जिस तरह बिहार के मानभूम आदि जिलों में सराक जाति, सरावगीजी की बतलाई हुई शताब्दियों में निवास करती रही है जिनको सभी लोगों ने एक मत से प्राचीन जैन श्रावक माना है और उनके निवास स्थान में सरावगीजी के उल्लिखित काल में बने हुए अनेक मन्दिर और जैन मूत्तियाँ कुछ वर्षों पूर्व तो अधिक पर अभी भी थोड़े रूप में प्राप्त हैं। इसी तरह बिहार शरीफ. राजगृह आदि के आसपास एक दूसरी प्राचीन जैन जाति के लोग प्राचीन समय से, पीछे की शताब्दियों तक निवास करते रहे है। वह जाति है-महत्तियाण, जिसे संस्कृत शिलालेखों में 'मन्त्रिदलीय' कहा गया है। अनुश्रुति के अनुसार वे भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत की परम्परा के थे। सम्भव है उनमें से जैन गुरुओं का सम्पर्क न रहने से बहुत से लोग जैनधर्म भूल चुके हों। इसलिए खरतरगच्छ के मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सं० १२११ से सं०१२२३ के बीच महत्तियाण जाति के लोगों को जैन धर्म का प्रतिबोध दिया। इस सम्बन्ध में हमारा निवन्ध 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। इस जाति वाले जैन बन्ध पर्याप्त प्रतिष्ठित धर्मप्रेमी और धनवान रहे हैं। उनके नामों के आगे 'ठक्कर' विशेषण उनके भूमिपति होने का सूचक है । खरतरगच्छ की 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' के अनुसार सम्वत् १३५२ में तो महत्तियाण जाति वाले जैनी राजगृह और बिहार शरीफ के आसपास काफी संख्या में रहते थे। इसी कारण और उनके अनुरोध से रखरतरगच्छ के वाचक राजशेखर ने नालन्दा बड़गाँव में चातुर्मास किया और वहाँ के जैनों ने विहार एवं उत्तरप्रदेश में तीर्थयात्री संघ निकाला जिसमें राजगृह, नालन्दा, पावापुरी. क्षत्रियकुण्ड. माहणकुण्ड, काकन्दी तथा वाराणसी, अयोध्या, रत्नपुरी, हस्तिनापुर आदि तीर्थों की यात्रा की। और गणिजी को पुनः लाकर विहार शरीफ में चातुर्मास कराया। इससे भगवान महावीर के वर्तमान निर्वाणस्थान दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान पं० बलभद्र जैन ने समस्त भारत के दिगम्बर जैन तीर्थों का इतिहास ५ वृहद खंडों में तैयार किया है। उन्होंने पावापुरी के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण लेख 'अनेकान्त' के अक्टूबर अंक में प्रकाशित करवाया है । इसमें दिगम्बर संस्कृत निर्वाण-भक्ति के श्लोक उद्धत करते हुए लिखा है कि "महावीर कमल-वन से भरे हुए और नानावृक्षों से सुशोभित पावानगर के उद्यान में कायोत्सर्ग ध्यान में आरूढ़ हो गये । पावापुर नगर के बाहर उन्नत. भूमिखंड पर कमलों से सुशोभित तालाब के बीच में निष्पाप वर्द्धमान ने निर्वाण प्राप्त किया।" इस उल्लेख से वर्तमान मान्य पावापुरी ही प्रभु का निर्वाण स्थान, दिगम्बर प्राचीन परम्परा के अनुसार भी सिद्ध होता है। कमलों के सरोवर के बीच ही वर्तमान जलमन्दिर भव्यजनों के परम आह्लाद को उत्पन्न करने वाला विद्यमान है। बौद्ध ग्रन्थोक्त सठियाँव वाली तथाकथित पावा में कमलसरोवर जानने में नहीं आया । सरावगीजी ने पावा समीक्षा के प्रथम परिच्छेद में लिखा है कि "उत्तरी विहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से जैन धर्म का बारहवीं शताब्दी तक पूर्णतः लोप हो गया था। बारहवीं शताब्दी तक वैशाली और मल्ल देशों से जैनों का सर्वथा वहिर्गमन हो चुका था और मुसलमानों का आतंक इन क्षेत्रों में बना हुआ था, इससे जैन अपने पूर्ववर्ती तीर्थस्थानों की ओर से उदासीन हो चुके थे और उन्हें प्रायः भूल चुके थे । सम्भवतः बारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक या तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में पटना वाली वर्तमान पावापुरी में भगवान महावीर के प्रतीक की स्थापना कर दी गई। पंद्रहवीं शताब्दी तक वर्तमान पावापुरी की भगवान महावीर के निर्वाण क्षेत्र के रूप में मान्यता हो गयी थी और मध्यमा पावा की [७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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