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________________ की बात को उस सम्प्रदाय के ग्रन्थों और प्राचीन परम्परा के आधार से बतलाना या मानना अधिक उचित है । विरोधी धर्म सम्प्रदायों की बातें जब वहुत-सी भ्रामक, गलत और द्वेषपूर्ण सिद्ध होती ही है, तव उनके आधार से जैन परम्परा की उपेक्षा करना सर्वथा अनुचित है। किये, वहाँ जैनों का खूब प्रभाव था । अतः अन्तिम निर्वाण स्थान जैनों के प्रभाव व मान्य स्थान के आसपास ही होना अधिक तर्कसंगत और हृदय-ग्राह्य है। पावा नामक स्थान भगवान महावीर के समय में भी तीन या तीन से अधिक थे । कुशीनारा के पास की पावा में बौद्ध प्रभाव हो अधिक होना चाहिए । जैन ग्रन्थों में महावीर के निर्वाण स्थान को मज्झिम पावा के नाम से उल्लिखित किया है जबकि बौद्ध ग्रन्थोक्त पावा को 'मज्झिन पावा' कहीं भी नहीं बतलाया है। पन्यास कल्याणविजयजी ने अपने 'श्रमण भगवान महावीर' ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि पावा नामक तीन नगरियाँ थी । जैन सूत्रों के लेखानुसार एक पावा मंगिदेश की राजधानी थी। यह देश पार्श्वनाथ पहाड़ के आसपास के भूमिभाग में फला हुआ था जिसमें हजारीबाग और मानभून जिलों के भाग शामिल हैं । दूसरी पावा कुशीनारा की और 'मल्लों की राजधानी थी। तीसरी पावा मगध जनपद में थी, यह उक्त दोनों पावाओं के मध्य में थी। पहली पावा इसके आग्नेय दिशा भाग में और दूसरी इसके वायव्य भाग में लगभग सम अंतर पर थी इसीलिये यह प्रायः मध्यमा पावा के नाम से ही प्रसिद्ध थी । भगवान महावीर के अन्तिम चातुर्मास का क्षेत्र और वीर निर्वाण भूमि इसी पावा को समझना चाहिये। बौद्ध ग्रन्थों में इस तीसरी पावा की चर्चा नहीं है । जैन ग्रन्थों में पहली पावा का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। श्री सरावगी जी ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिये मिट्टी की मोहर का जो पाठ उपस्थित करके, उससे जो अर्थ निकाला है वह तो बहुत ही हास्यास्पद-सा लगता है। श्री सरावगी दिगम्वर सम्प्रदाय के हैं और उस सम्प्रदाय में प्राचीन जैन इतिहास एवं साहित्य की परम्परा उतनी सुरक्षित नहीं रही, जितनी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में रही है। प्रारम्भिक निवेदन में उन्होंने इसे स्पष्टतः स्वीकार किया है कि "श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो तीर्थ-कल्प आदि कुछ ग्रन्थ हैं भो पर दिगम्बर सम्प्रदाय में कोई ऐसा प्राचीन ग्रन्थ नहीं मिलता जिससे तीर्थों की तालिका, अवस्थिति, स्थान, मार्ग. रचना, निर्माण कालादि का ज्ञान हो सके ।" । श्वेताम्बर साहित्य और इतिहास की अजानकारी के कारण ही उन्होंने यहाँ तक लिख दिया कि "छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जैनों के अनेक तीर्थ विस्मृत हो गये अथवा उनके अधिकार के बाहर हो गये। आगे चलकर भट्टारकों ने और उनकी प्रेरणा से श्रद्धालु धनिकों ने मिलते-जुलते नामों के आधार पर अथवा भावुकता के तल पर कृत्रिम तीर्थों की स्थापना कर भव्य विशाल मंदिर, चैत्य, धर्मशालाएँ आदि का निर्माण करवा दिये । कुण्डलपुर, क्षत्रियकुण्ड आदि की कृत्रिमता तो प्रमाणित हो ही चुकी है। पावापुरी भी इसी प्रकार स्थापित तीर्थों में से एक है ।" वास्तव में पूर्व देश से जैन संघ जब पश्चिम और दक्षिण की ओर चला गया तो प्राचीन तीर्थों में आवागमन अवश्य कम हो गया पर परम्परा विच्छेद नहीं हुई। न्यूनाधिक अभी-अभी छपरा के श्री कन्हैयालाल सरावगी का 'पावा समीक्षा' नामक ग्रन्थ देखने में आया । इसमें मुख्यरूप से बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर कुशीनारा के पास की पावा को ही भगवान महावीर का निर्वाण स्थान सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। वास्तव में जिस सठियांव या फाजिलनगर को पावा नामक स्थान वतलाया गया है उस स्थान के पक्ष में एक भी जैन प्रमाण वे नहीं दे पाये । वस्तुतः किसी भी सम्प्रदाय ७8 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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