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________________ क्रोधाग्नि से तो दग्ध हूँ मैं लोभ सर्प डसा मुझे। मान अजगर ने निगल डाला कहं क्या प्रभु तुझे ।। फंसा मायिक जाल में हूँ मोह मुग्ध विकल दशा। कैसे भजू प्रभु आपको हूँ चोर पल्ली में वसा ।।५।। इह भवे या परभवे नहिं हित किया मैंने कभी। जिससे न पाया त्रिजगपति मैं सुख किंचित भी अभी ।। जन्म मेरा मात्र यों भव पूर्ण करने को सही। अज्ञान वश नर जन्म से भी लाभ कुछ पाया नहीं ||६|| रत्नाकर-पच्चीसी (हिन्दी पद्यानुवाद) आनन्ददाता नाथ तब मुखचन्द्र से अमृत झरे । तो भी नहीं मन सिक्त होता भक्ति गंगा से अरे ।। पाषाण से भी कठिन मेरा मन नहीं होता द्रवित । चपलता मर्कट सरिस नहीं हो कभी एकाग्र चित्त |७|| क्रीड़ा भवन मांगल्य के प्रभु मोक्ष लक्ष्मी धाम हो। नर अमर और सुरेन्द्र से पाद-पद्म ललाम हो || सर्वज्ञ द्रष्टा सर्व अतिशय धार आप प्रधान हो। चिरकाल जयवंते रहो सह कला ज्ञान निधान हो ||१|| भव भ्रमण करते काल-लब्धि पा कृपा प्रभु आपकी। दुष्प्राप्य दर्शन ज्ञान चारित्र नाश भव संताप की ।। निद्रा प्रमाद कषाय के वशवर्ती बन कर खो दिया । हे नाथ, कहँ जाकर पुकारू' भूल मैंने ही किया ।।८।। करुणावतार महान अरु त्रय जगत के आधार हो। धन्वन्तरी दुःसाध्य वारक भव भ्रमण विकार को ।। गत राग प्रभु हो विज्ञ तो भी कहूँ मद्रिक भाव से। हार्दिक सुनें कुछ प्रार्थना मेरी सकरुणा भाव से ॥२॥ विश्व वंचन के लिए वैराग्य रंग प्रदर्शिता । लोक रंजन हेतु शाब्दिक जाल युत उपदेशिता ।। मात्र वाद विवाद हेतु अध्ययन जो कुछ किया। बाह्य साधु स्वांग धारी दंभ पूरित मम हिया ।।९।। क्या बाल लीला कलित शिशु माता-पिता के सामने । क्रीड़ा न करता और ज्यों त्यों शब्द बोलत मन-मने ॥ त्यों नाथ चरणों में यथास्थित बात पश्चाताप से। आशय निवेदन कर रहा हूँ सरल मन आलाप से ॥३॥ मुख मलिन परदोष भाषण योग से मेरा हुआ। पर-नारि प्रति आकृष्ट होकर नेत्र द्वय दूषित किया । दूसरों का अशुभ चिंतन चित्त कलुषित हो गया। क्या कहूं मेरा भविष्य अंधकार पूरण हो रहा ॥१०॥ दारिद्रय नाशक दान नहिं किया न पाला शील भी। दुर्गति निवारक और तप से दमन इद्रिय का कमी ।। अन्तरात्म में शुभ भावना नहिं की चतुर्विध धर्म की। निष्फल गया भव भ्रमण मेरा नहिं किया सत्कर्म भी ॥४॥ कर रहा है काम राक्षस विड़म्बित विषयान्ध हूँ। हृदय द्रावक मम भयंकर दशा कैसे प्रभु कहूँ ।। सर्वज्ञ प्रभु जानो सभी तो भी प्रकट हूँ कर रहा। त्याग लज्जा नाथ आगे हृदय हल्का कर कहा ||११|| ११८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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