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________________ इस लोक हितकर तुच्छ मंत्रों कुशास्त्रों को चित्त धरी। नवकार और जिनागमों की उपेक्षा मैंने करी॥ असत्संग कुदेव के दुष्कर्म बहु संचय किया। मेरा मतिभ्रम नाथ कंकर पाय रत्न गवां दिया ||१२|| रह काम धेन कल्पतरु चिन्तामणि की खोज में। आसक्त होकर दःख उठाया भवानन्दी मौज में । जिन धर्म जो प्रत्यक्ष दाता मोक्ष सुख का है सही। मुझ मूढ़ता को नाथ देखो, सेवन सुचारु किया नहीं ॥१९॥ दृष्टिगत प्रभु आपको तज अज्ञ मैंने क्या किया। ध्याय मदन को हृदयगत कर कल्पवृक्ष भुला दिया ।। कटाक्ष दृष्टि उरोज नाभि नारी की सुन्दर कटि । शृगार विषय विलास विष आकृष्ट हो देखा अति ।।१३।। उत्तम गिने भोगों को मैंने रोग सम माने नहीं। धन आगमन इच्छा करी पर निधन आशंका नहीं ।। नरक कारागार सम रमणी है नहिं चिन्तन किया । मधु-बिन्दु तृष्णा में लगा अरु भय सभी विस्मृत किया ।।२०।। मृगलोचनी के मुख-कमल लावण्यता को देख कर । मानस पटल पर जो लगा है राग लेश विकार कर ।। श्रुत उदधि नीर प्रक्षालते बेदाग होता हो नहीं। कैसे प्रभु इस पाप से रक्षित रहूँ सोचो सही ।।१४।। संत हृदये स्थान प्राप्ति न की सदआचार से। नहीं यश उपार्जन भी किया कर कार्य पर उपगार के ।। तीर्थ चैत्योद्धार आदि महत् कार्य नहीं किए। भव भ्रमण करते जन्म मानव प्राप्त कर निष्फल जिये ||२१|| नहिं अंग सौष्ठव रत्न गुण समुदय भी किंचित नहीं। उत्तम कला विकसित नहीं, न ज्ञान ज्योति प्रभा कहीं ।।। प्रभुता नहीं है लेश फिर भी हम बड़े संकडी गली। अभिमान की सीमा नहीं है मूंज वट्ट नहीं जली ||१५|| वैराग्य रंग न गुरु वचन से लग सका मेरे हृदय । तब दुष्ट जन की वाणी से होता कहां मन शांतिमय ।। अध्यात्म मार्ग नहीं मिला अधोमुख घट की तरह। संचय हुआ नहीं ज्ञान का तिरना भवोदधि किस तरह ||२२|| आयुष्य क्षय होता है तो भी पाप बुद्धि नहीं गई। वय क्षीण पर मिटती नहीं विषयाभिलाषा लेश भी । यत्न औषधि का करू' पर धर्म आश्रय ना ग्रहूँ। यह महा मोह विडम्बना प्रभु आप बिन किससे कहूँ ।१६।। आत्मा नहीं परभव नहीं फिर पाप पुण्य रहा कहाँ ? नास्तिक्य मिथ्या वचन कटु-रस कर्ण-पुट पीता रहा ॥ ज्ञान सूर्य समान प्रभु से ले सका न प्रकाश भी। ले दीप कुँए में गिरा धिक्कार मुझको सत्य ही ।।१७।। पूर्व भव नहीं पुण्य संचित अभी भी करता नहीं। आगामी भव साधन बिना प्राप्ति नहीं होगी कहीं ।। तीन भव हे त्रिजगपति यों नष्ट कर बिगड़े समी। अब आश केवल नाथ की बाजी सुधर जाये अभी ।।२३।। हे तीन लोक स्वरूप ज्ञाता, आपके सन्मुख अधिक । क्या कहा जाये मम चरित प्रभु आप जानें काल त्रिक ।। हस्तामलकवत् देखते हैं तीन जग के भाव जो । फिर कहाँ अवकाश है मेरे चरित्र छिपाव को ॥२४|| चित्त शुद्धि से नहीं देव पूजे पात्र उत्तम नहीं चाहा। श्राद्ध धर्म न श्रमण संयम पालने में मन रहा। पाय नर भव रत्न चिन्तामणि समान प्रभु अहो! निष्फल गया जीवन न पाया लांम ही रण रुदन ज्यों । १८|| आपसे बढ़कर न कोई दीन उद्धारक कहीं। मेरे सदृश नहीं पात्र करुणा जनक देखो सब मही॥ नहिं मांगता धन किन्तु लक्ष्मी मुक्ति पुरि रूपी सही। सम्यक्त्व रत्नाकर 'भंवर' को दीजिए विनती कही ||२|| ॥ इति श्री रत्नाकर-पच्चीसी हिन्दी पद्यानुवाद संपूर्णम् ।। [११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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