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बंगाल के जैन पुरातत्त्व की
शोध में पाँच दिन
वीसौं वर्ष से श्री ताजमलजी बोथरा के साथ बङ्गाल के सराक क्षेत्रों में पुरातत्त्व शोध के हेतु भ्रमण करने का विचार चल रहा था, परन्तु काल-परिपाक के बिना संभव न हो सका। अभी जब समय आया तो न जेठ महीने के कड़े धूप की और न साधन सामग्री की ही अपेक्षा की गई और निकल पड़े एक सीमित समय और क्षेत्र की परिधि में भ्रमणार्थ । हमारे साथ थे अंग्रेजी 'जैन जर्नल' व बङ्गला 'श्रमण' के सम्पादक श्री गणेश जी ललवानी। हम सर्वप्रथम ता० २३ मई की रात्रि में रवाना होकर ता० २४ के ऊषः काल में विष्णुपुर पहुंचे । गाड़ियों के लेट चलने से हमें काली रात्रि नहीं ऊषःकालीन प्रकाश अनायास ही उपलब्ध हो गया । हम लोग रिक्शों द्वारा सीधे श्री रामपद मण्डल नामक सराक भाई के यहाँ पहुँचे । शौच स्नानादि से निवृत्त होकर रिक्शों पर हम लोग द्वारकेश्वर नदी के लम्बे कछार को पार कर धरापात नामक स्थान में पहुंचे। मार्ग में कई शिवालयादि देव मन्दिरों का समूह दृग्गोचर हुआ जो केवल एक गर्भगृह-शिखरी थे और उनके प्रवेश द्वार की चौड़ाई अत्यन्त संकरी रखने की प्रथा देखने में आई। धरापात
में हमें जो मन्दिर देखना अभीष्ट था, देव प्रतिमा से विहीन और एक ब्राह्मण ठाकुर (पुजारी) का आश्रय स्थान -सा हो रहा था । प्रस्तुत मन्दिर के बाह्य भाग में तीनों ओर ताकों में विशाल प्रतिमायें विराजित थीं जिनमें पृष्ठ भाग वाली में भगवान ऋषभदेव-आदिनाथ, वामपक्ष से प्रदक्षिणा . करते प्रथम शान्तिनाथ भगवान और अन्त में तीसरे आले में जेनेतर प्रतिमा लगी हुई थी। ये दोनों जिन प्रतिमायें लगभग हजार-बारह सौ वर्षों जितनी प्राचीन अवश्य ही थीं। इस मन्दिर के ठीक पीछे सड़क के पास एक और मन्दिर था जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की एक सप्तफण मण्डित खनासन प्रतिमा विद्यमान थी । इन क्षेत्रों में जहाँ भी जिन प्रतिमायें हैं, उन्हें कहीं नेंगटेश्वर शिव, कहीं भैरव और कहीं अन्यान्य नामों से पुकारते हैं। इन सभी प्रतिमाओं में मूलनायक तीर्थङ्कर में मूलनायक तीर्थकर लांछन एवं परिकर में अन्य प्रतिमाएं उत्कीणित हैं । पहले की दोनों प्रतिमाओं के परिकर में चौबीस तीर्थङ्कर उभयपक्ष में अवस्थित हैं जबकि भगवान् पार्श्वनाथ के परिकर में बाद में महाप्रातिहार्यों के अतिरिक्त विष्णु प्रतिमा निर्माणार्थ दो हाथ और खोद कर बना दिये हैं।
धरापात से लौटकर हम लोग विष्णुपुर आये और भोजनोपरान्त बस द्वारा औंधा पहुँचे । वहाँ उतरने के लिये पूछने पर नाम साम्य से भ्रान्त सहयात्रियों के कहने पर हम कई मील आगे चले गये, जहाँ से एक दूसरे गांव 'बेलारा' जाने का मार्ग था । रेलवे क्रॉसिंग पर प्रतीक्षा करते दूसरी गाड़ी के आने पर हमलोग वापस औंधा आए । वहाँ हमें दो रिक्शे मिले जिन्हें मुंहमांगे चौदह रुपयों में भाड़ा करके हमलोग बहुलारा गाँव की और बढे व वक्षों के झरमुट वाले गाँव के बाहर एक बहुत ही ऊँचे शिखर वाले कलापूर्ण मंदिर के विशाल अहाते में पहुंचे । यहाँ का शिल्प प्रशंसनीय है और स्थापत्य शैली को देखकर भुवनेश्वर आदि उत्कल प्रान्तीय मन्दिरों की स्मृति ताजी हो
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