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काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग (४) अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्मवत् करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध, प्रज्ञा और पीड़ा समझना और उसके प्रति करुणा का भाव रखना ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है । दर्शन शब्द का दृष्टिकोण- और (५) आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्मपरक अर्थ भी लिया गया है। प्राचीन जैनागमों में सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना । दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययन सूत्र तथा
सम्यक् दर्शन के छः स्थान : तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वश्रद्धा भी माना जिस प्रकार बौद्ध-साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का गया है ।२१ परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी का मार्ग है इन चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति सम्यक प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानकों दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्व श्रद्धा, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, (छः बातों) की स्वीकृति सम्यक दर्शन है-(१) आत्मा है, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे
(२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता
है, (४) आत्मा कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है, सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्वा (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मक्ति का श्रदा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नदी उपाय ( माग) हा होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । जैन तत्व-विचारणा के अनुसार इन षटस्थानकों पर एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है । उद्घाटन कर वस्तुतत्व के यथाथे स्वरूप को जानता है दृष्टिकोण की विशद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास निर्भर है : ये षट स्थानक जैन-साधना के केन्द्र बिन्दु हैं। करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर सम्यक् ज्ञान का अर्थ : भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे
दृष्टिकोण की विश द्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्त्वता श्रद्धा के माध्यम से । श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी
निर्भर करती है। अतः जैन साधना का दूसरा चरण है वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है।
सम्यग्ज्ञान । सम्यक-ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐप्ता
किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार निराकुल चित्तवृत्ति से,
आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक अतः प्रकारान्तर से उसे भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।।
ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक
ज्ञान वस्तु तत्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान सम्यक् दर्शन के पाँच लक्षण :
है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन धर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये जैन-दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व है क्योंकि गये हैं-(१) सम अर्थात् समभाव, (२) संवेग अर्थात् वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्या- आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और भीप्सा, (३) निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञा
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उत्तराध्ययन, २८/३५; तत्त्वार्थ सूत्र, १/२ । २२ आत्मसिद्धि, पृ० ४३ ।
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