SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाता है एवं अनुयोगद्वार सूत्र में पुस्तक पत्रारूढ़ श्रुत को द्रव्य-श्रुत माना है पर अधिकांश आगम मौखिक ही रहते थे. लिखित आगमों का प्रचलन नहीं था, क्योंकि श्रमण वर्ग अधिकतर जंगल, उद्यान और गिरि-कन्दराओं में निवास करते और पुस्तकों को परिग्रह के रूप में मानते थे। इतना ही नहीं. वे उनका संग्रह करना असंभव और प्रायश्चित योग्य मानते थे. निशीथ-भाष्य, कल्प-भाष्य, दशवैकालिक-चूणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है । परन्तु पंचम काल के प्रभाव से क्रमशः स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाने से श्रुत साहित्य को ग्रन्थारूद करना अनिवार्य हो गया था । अतः श्रुतधर आचार्य ने समस्त संघ समवाय में श्रुतज्ञान की वृद्धि के लिए ग्रन्थारूद करने की स्वीकृति को संयम वृद्धि का कारण मान्य किया और उसी सन्दर्भ में ग्रन्थ व लेखन सामग्री का संग्रह व विकास होने लगा। पहले ताड़पत्र और बाद में कागज का उपयोग प्रचुरता से होने लगा । ग्रन्थ लेखन में वस्त्रों का उपयोग भी कभी-कभी होता था, परन्तु पत्राकार तो पाटण भण्डारस्थ सं० १४१० की धर्म-विधि आदि की प्रति के अलावा टिप्पणाकार एवं चित्रपट आदि में प्रचुर परिमाण में उसका उपयोग होना पाया जाता है । हमारे संग्रह में ऐसे कई ग्रन्थादि हैं । ताड़पत्र और वस्त्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख अनुयोग'चूणि तथा टीका में है। लिपि और लेखन उपादान : श्रुत लेखन में लिपि का प्राधान्य है। जैनाचार्यों ने भगवती सूत्र के प्रारम्भ में 'नमो बंभीए लिवीर' द्वारा भारत की प्रधान ब्राह्मी लिपि को स्वीकार किया। इसी से नागरी, शारदा, ठाकरी. गुरुमुखी, नेवारी, बंगला, उड़िया. तेलगु. तमिल, कन्नड़ी. राजस्थानी, गुप्त, कुटिल, गुजराती, महाजनी और तिब्बती आदि लिपि का क्रमिक विकास हुआ। उत्तर भारत के ग्रन्थों में देवनागरी लिपि का सार्वभौम प्रचार हुआ। स्थापत्य लेखों के लिये अधिकतर पाषाण शिलाफलकों का उपयोग हुआ । कहीं-कहीं काष्ठ-पट्टिका और भित्ति लेख भी लिखे गए पर उनका स्थायित्व अल्प होने से उल्लेख योग्य नहीं रहा । दान-पत्रादि के लिये ताम्र धातु का उपयोग प्रचुरता से होता था, पर ग्रन्थों के लिये ताड़पत्र, भोजपत्र और कागज का उपयोग अधिक हुआ । यों काष्ठ के पतले फलक एवं लाक्षा के लेप द्वारा निर्मित फलकों पर लिखे ग्रन्थ भी मिलते हैं जिनका सम्बन्ध ब्रह्म देश से था। जैन ग्रन्थ लिखने में पुस्तक लेखन के साधन : जैनागम यद्यपि गणधर व पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचित हैं। इनका लेखनकाल विक्रम सं० ५०० निर्णीत है। उपांग सूत्र राजप्रश्नीय में देवताओं के पढ़ने के सूत्र का जो वर्णन आता है वह समृद्धिपूर्ण होते हुए भी तत्कालीन लेखन सामग्री और ग्रन्थ के प्रारूप का सुन्दर प्रतिनिधित्व करता है। इस सूत्र में लिखा है कि पुस्तकरत्न के सभी साधन स्वर्ण और रत्नमय होते हैं । यतः तस्स णं पोत्थ रयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णते. तं जहा रयणमयाइ पत्तगाई, रिठ्ठामई कंबियाओ. तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, वेरुलिय-मणिमय लिप्पासणे. रिठ्ठामए छंदणे; तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अक्खराइं. घम्मिए सत्थे।' (पृष्ठ९६) प्रस्तुत उल्लेख में लेखन कला से सम्बन्धित पत्र, कांविका,डोरा.ग्रन्थि-गांठ, लिप्यासन-दावात, छंदणय (टक्कन). सांकल, मषी-स्याही और लेखनी साधन हैं। ये १-जिस रूप में ग्रन्थ लिखे जाते थे. २-लिखने के लिए जो उपादान होना, ३-जिस स्याही का उपयोग होता और ४.लिखित ग्रन्थों को कैसे रखा जाता था, इन बातों का विवरण है। पत्र-जिस पर ग्रन्थ लिखे जावें उसे पत्र या पन्ना कहते हैं। पत्र वृक्ष के पत्ते. ताड़पत्र. भोजपत्रादि का और बाद में कागज का उपयोग होता था, पर बांधने आदि के साधन से विदित होता है कि पत्ते अलग-अलग खुले होते थे। [८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy