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________________ तथा ऊपर से नीचे खत्री लिखी जाने वाली लिपि त्संकी है जो चीन के अधिवासी संकी ने पक्षियों आदि के चरण चिन्हों से निर्माण की थी। जैन लेखन कला गुजरात की यह कहावत सर्वथा सत्य है कि सरस्वती का पीहर जैनों के यहां है । भगवान् ऋषभदेव ही मानव संस्कृति के जनक थे. उन्होंने ही परम्परागत युगलिक धर्म को हटाकर कर्मभूमि के असि. मसि और कृषि लक्षण को सार्थक किया था। समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के वे प्रथम शिक्षक, आदिपुरुष होने से उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लेखन-कला, लिपिविज्ञान सिखाया. इसी से उसका नाम ब्राह्मी लिपि पड़ा । आवश्यक नियुक्ति भाष्य गाथा १३ मे "लेहं लिवी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेण" लिखा है एवं पंचमांग भगवती सूत्र में भी सर्वप्रथम 'नमो बंभीए लिवीए' लिखकर अठारह लिपियों में प्रधान ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में ६४ लिपियों के नाम हैं जिनमें भी प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी का उल्लेख है। बायीं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाने वाली समस्त लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाने वाली लिपि खरोष्टी है और उसी से अरबी, फारसी. उर्दू आदि भाषाएं निकली हैं । चीनी भाषा के बौद्ध विश्वकोश के अनुसार ब्रह्म और खरोष्ट भारत में हुए हैं और उन्होंने देवलोक से लिपियां प्राप्त की यद्यपि भगवान ऋषभदेव को असंख्य वर्ष हो गए और लिपियों का उसी रूप में रहना असंभव है और न हमारे पास उस विकास क्रम को कालावधि में आबद्ध करने वाले साधन ही उपलब्ध हैं। वर्तमान लिपियों का सम्बन्ध ढाई हजार वर्षों की प्राप्त लिपियों से जुड़ता है। यों मोहनजोदड़ों और हड़प्पा आदि की संस्कृति में पाँच हजार वर्ष की लिपियां प्राप्त हुई हैं तथा राजगृह एवं वाराणसी के अभिलेख जिसे विद्वानों ने "शंख लिपि" का नाम दिया है, पर अद्यावधि उन लिपियों को पढ़ने में पुरातत्वविद् और लिपि विज्ञान के पण्डित भी अपने को अक्षम पाते हैं । बाह्मी लिपि नाम से प्रसिद्ध लिपि का क्रमिक विकास होता रहा और उसी विकास का वर्तमान रूप अपने-अपने देशों व प्रान्तों की जलवायु के अनुसार विकसित वर्तमान भाषा-लिपियाँ हैं । खरोष्टी लिपि सैमेटिक वर्ग' की है और उसका प्रचार ईसा की तीसरी शती पर्यन्त पंजाब में था और उसके बाद वह लुप्त हो गई। पन्नवणा सूत्र में कुल लिपियों के नामोल्लेख के अतिरिक्त समवायांग सूत्र के १८ वें समवाय में अठारह लिपियों के नाम एवं विशेषावश्यक टीका के अठारह लिपि नामों में कुछ अन्तर पाया जाता है । जो भी हो यहाँ जैन लेखन कला और उसके विकास पर प्रकाश डालना अभीष्ट है। भगवान महावीर की वाणी को गणधरों ने ग्रथित किया तथा भगवान् पार्श्वनाथ के शासन का वाङ्मय जो मिल-जुलकर एक हो गया था विशेषतः मौखिक रूप में ही निग्रंथ परम्परा में चला आता रहा । आचार्य देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण संवत् ९८० में वल्लभी में आगमों को ग्रन्थारूढ़/लिपिबद्ध किया तब से लेखन-कला का अधिकाधिक विकास हुआ। इतःपूर्व कथंचित् आगम लिखाने का उल्लेख सम्राट खारवेल के अभिलेख में पाया ८० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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