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तो उसी दिन देवों द्वारा अग्नि-संस्कार कर दिया गया और परम्परा के अनुसार इन्द्र और देव आदि प्रभु की अस्थियाँ आदि देवलोक में ले गये और रत्नकरण्डों में रख कर उनकी पूजा करने लगे।
बात है। गाँव तो वहाँ पुराना था तभी तो वहाँ मन्दिर आदि बने, गाँव कोई नया वसा कर मन्दिर आदि नहीं बनाया।
पृ० ६९ में लिखा है कि हरिवंश पुराण के समय तक वर्तमान पावापुरी की स्थापना हो चुकी थी और जिनसेन का हरिवंशपुराण शक संवत् ७०५ (वि० सं० ८४ में रचा गया था अतः सरावगीजी के उक्त लेखानुसार आठवीं शताब्दी से पूर्व ही वर्तमान पावापुरी की स्थापना हो चुकी थी। पृ० ७० में उन्होंने हरिवंश पुराण का रचनाकाल सन् १३१० ई० लिखा है. यह गलत है।
पृ० ७१ में लिखा है "बौद्ध शास्त्रों की तरह जैन ग्रन्थ सिलसिलेबार लिखे हुऐ नहीं हैं," पर वर्तमान आगम सिलसिलवार ही हैं। बौद्ध शास्त्रों की ऐतिहासिक शृखला जैन शास्त्रों की तुलना में अधिक विश्वसनीय अँचती है लिखना भी अनुचित है । जैन आगम भी विश्वसनीय सूचनाओं के भंडार हैं।
पृ० १२३ में "समाधि" शब्द का जो अर्थ किया गया है उसे देखते हुये वहाँ ."समाधि-मरण" शब्द होना चाहिए।
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पृ० ११२ में लिखा है कि "वर्तमान पावापुरी गाँव अधिक से अधिक छः-सात सौ वर्ष पुराना है। यहाँ प्राचीन कोई चीज नहीं है. जो है पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग की है।" पर यह गाँव भगवान की निर्वाण भूमि के रूप में ही जब तेरहवीं या इससे पूर्व की शताब्दी तक सरावगीजी को मान्य है. तब इस गाँव को छ:-सात सौ वर्ष अधिक से अधिक बतलाना तो परस्पर विरोधी
बहुत से स्थानों का सही निर्णय केवल इतिहास के आधार से नहीं किया जा सकता. परम्परा का भी अपना महत्व है। अतः समस्त जैन समाज वर्तमान मान्य पावापुरी में ही पचीस सौवां निर्वाण मनायेगा और उसी को मान्य रखने का अनुरोध किया जाता है। वौद्ध ग्रन्थोक्त पावा बौद्धों को ही मान्य हो. जैनों को नहीं।
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