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________________ कंबिका-ताड़पत्रीय ग्रन्थ के संरक्षण के लिए रखी जाने इकपॉट ( Inkpot) से है। विज्जासणा-विद्यासन वाली काष्ठपट्टिका को आगे कांवी कहा जाता था। आजकल . और मजीसणां-मषीआसन. मषीभाजन से बना प्रतीत जो वाद की बनी हुई कविका प्रयोग में आती है वह वांस. होता है। लकड़ी. हाथीदांत आदि की होती है, जिस पर हाथ छंदण और सांकल-दावात के ऊपर जो ढक्कन रखने से पसीने के दाग आदि नहीं लगते हैं । रेखा लगाया जाता है उसे छंदण (आच्छादन ) कहते हैं तथा खींचने के लिए भी उसका उपयोग होता था व कुछ चौड़ी उसे सम्बन्धित रखने वाली सांकल होती है जो दावात पट्टियाँ पत्र रखकर पढ़ने के उपयोग में भी आती थीं।। से ढक्कन को संलग्न रखती है। पुरानी पीतल आदि की डोरा-ताड़पत्रीय ग्रन्थों के पन्ने चौड़ाई में संकरे भारी-भरकम शिखरबद्ध ढक्कनवाली दावातें आज भी कहींऔर लम्बाई में अधिक होने से वे एक दूसरे से संलग्न कहीं देखने को मिलती हैं। न रहकर अस्त-व्यस्त हो जाते थे, इसलिए उन्हें व्यव मपी-अक्षरों को साकार रूप देने वाली मषी स्थित रखने के लिए बीच में छेदकर बांध देना अनिवार्य 'स्याही' है। मषी शब्द कज्जल का द्योतक है जो काली था। बांधने के लिए डोरे का प्रयोग होता और उस स्याही का उपयोग सूचित करता है। रायपसेणी सूत्र लवे डोरे को फिर कसकर बांध देते थे जिससे वह दोनों का 'रिट्ठामई मसी' और अक्षर रिष्ट रत्न के श्याम वर्ण पुट्ठों-काष्ठफलकों के बीच कसा हुआ सुरक्षित रहता। होने से उसी का समर्थन करते हैं । आजकल दूसरे सभी ताड़पत्रीय ग्रन्थों के पश्चात् जब कागजों पर लिखने की रंगों के साथ काली स्याही शब्द प्रयोग में आता है। प्रथा हो गईं तो भी उसके मध्य में छेद करके डोरा पिरोया जाता । वह अनावश्यक होने पर भी ताडपत्रीय पद्धति लेखनी-जिसके द्वारा शास्त्र लिखे जाएं उसे लेखनी कायम रही और मध्य भाग में चौरस या वृत्ताकार रिक्त कहते हैं। साधारणतया कलम ही लिखने के काम में स्थान छोड़ दिया जाता था। यह प्रथा उन्नीसवीं शती आती थी पर दक्षिण भारत, उड़ीसा और वर्मा की तक चलती रही। फिर भले ही उसमें अलंकरण का रूप लिपियों को ताड़पत्र पर लिखने के लिए लौह लेखनी का ताडपत्रीय ग्रन्थों की स्मृति रूदिमात्र रही हो। आज भी उपयोग होता है पर कागज और उत्तर भारत के ताड़पत्रादि पर लिखने वाली कलम का ही यहाँ आशय ग्रन्थि-ताडपत्रीय पुस्तक में डोरा पिरोने के बाद समझना चाहिए। यों बंगाल आदि में पक्षियों की पांख वे निकल न जाएँ तथा ग्रन्थ नष्ट न हो जाए इसलिए से भी लिखा जाता था। हाथीदांत, सीप, काष्ठ आदि के चपटे वाशर लगाए जाते थे जिसे ग्रंथी कहते थे। लेखन उपादान के प्रकारान्तर: लिप्यासन-शब्दार्थ के अनुसार तो इसका अर्थ लेखन के उपादान-कागज, ताड़पत्रादि होता है परन्तु आचार्य मलयगिरि ने इसका अर्थ मषि-भाजन अर्थात् दावात किया है । गुजरात में खडिया कहते हैं. राजस्थान में विज्जासणा कहते हैं । कविवर समयसुन्दरजी ने मजीसणां शब्द का प्रयोग किया है, पर सबका आशय - जैसे आजकल छोटी-बड़ी विविध आकार की पुस्तकें होती हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में विविध आकारप्रकार की पुस्तकें होने के उल्लेख दशवैकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका, निशीथचूणि, वृहत्कल्पसूत्र वृत्ति आदि में पाये जाते हैं । यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है: २] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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