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________________ दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में 'आत्मा और गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा कीकर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है ।' ६ मिथ्यात्व भगवन् ! बाण के जीवों को मार्ग में जाते समय कितनी अवत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध क्रियाएँ लगती हैं ? उसके हर एक अवयव की कितनी आत्मा से होता है । क्या वे ही लेश्या हैं ? पूज्यपाद ने क्रियाएँ होती हैं ? उत्तर में भगवान ने कहा-गौतम, सर्वार्थ सिद्धि में कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन चार-पाँच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि मार्ग में जाते समय मार्गवी जीवों को वह संत्रस्त करता है। वाण के प्रहार राजवातिक में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण से वे जीव अत्यन्त सिकड जाते हैं। प्रस्तुत सन्तापकारक किया है। स्थिति में जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं, यदि प्राणाति__ सार यह है कि केवल कषाय और योग लेश्या नहीं पात हो जाय तो पाँच क्रियाएँ लगती हैं। यही स्थिति है, किन्तु कषाय और योग दोनों ही उसके कारण हैं। तेजो-लेश्या की भी है। उसमें भी चार-पाँच क्रियाएँ इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न तो योग में किया जा लगती हैं। अष्टस्पशी पुद्गल-द्रव्य मार्गवती जीवों को सकता है और न कषाय में। क्योंकि इन दोनों के संयोग उद्वेग न करे, यह अस्वाभाविक है। भगवती में स्कन्दक से एक तीसरी अवस्था समुत्पन्न होती है जेसे शरबत । मनि का 'अविहिलेश्य' यह विशेषण है जिसका अर्थ है कितने ही आचार्य मानते हैं कि लेश्या में कषाय की प्रधा- उनकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है।११ नता नहीं अपितु योग की प्रधानता होती है क्योंकि केवली आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिमें कषाय का अभाव होता है, किन्तु योग की सत्ता रहती पादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग है, इसलिए उसमें शुक्ल लेश्या है। हुआ है। शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे । षट् खण्डागम की धवला टीका में लेश्या के सम्बन्ध उनकी लेश्या में विचरे अर्थात उनके विचारों का अनुमें निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, गमन करे । १२ प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि आगम साहित्य में लेश्या शब्द का अल्प-बहुत्व प्रभृति अधिकारों के द्वारा चिन्तन किया है। प्रयोग वर्ण प्रभा और रंग के अर्थ में भी हुआ है। प्रज्ञाआगम साहित्य में अट्ठाइस लब्धियों का वर्णन है। उनमें पना में देवों के दिव्य प्रभाव का वर्णन करते हुए द्युति, एक तेजस् लब्धि है। तेजोलेश्या अजीव है। तेजो- प्रभा, ज्योति, छाया, अचि और लेश्या शब्द का प्रयोग लेश्या के पुद्गलों में जिस प्रकार लाल प्रभा और कान्ति हुआ है । १३ इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ कर्म होती है वैसी ही कान्ति तेजस लब्धि के प्रयोग करने वाले विपाकों के सम्बन्ध में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत कीपुद्गलों में भी होती है। इसी दृष्टि से तेजस्-लब्धि के क्या सभी नारकीय जीव एक सदश लेश्या और एक सदृश साथ लेश्या शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। वर्ण वाले होते हैं या असमान ? समाधान करते हुए ६ धवला, ७, २, १, सू० ३, पृ०७ । . सर्वार्थसिद्धि. २/B. तत्वार्थ राजवार्तिक २/६/८। ८ तत्त्वार्थ राजवार्तिक, २, ६, ८, पृ० १०६ । ' धवला, १, १, १, ४, पृ० १४६ । १० तत्तेणं से उसु उडढं बेहासं उविहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणई वत्तेति लेस्सेत्ति-भग० २/५, उ०६ । ११ अविहिल्लेसे, भगवती, २-२, उ०१ । १२ आचारांग, अ० ५। १३ प्रज्ञापना, पद २। [ ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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