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गोंद के पानी में घोंट कर तैयार करने से ग्रन्य संशोधन में काम आ सकता है। पर हरताल का सौन्दर्य और टिकाऊपन अधिक है।
चूंटा या ओपणी-आगे लिखा जा चुका है कि । अकीक, कसौटी या दरियाई कोड़ों से कागज पर पालिस होती है। हरताल, सफेदा लगे कागजों पर ओपणी करके फिर नए अक्षर लिखने से वे फैलते नहीं-स्याही फूटती नहीं।
गेरू-जैसे आजकल विशिष्ट वाक्य, श्लोक, पुष्पिका आदि लाल पेन्सिल से अण्डर लाईन करते हैं वैसे हस्तलिखित ग्रन्थों में भी आकर्षण के लिए पद, वाक्य, गाथा. परिच्छेद, परिसमाप्ति स्थान गेरू से रंग दिए जाते थे।
डोरा-ताडपत्रीय युग में स्मृति योग्य पंक्ति, पाठ,
अधिकार, अध्ययन, उद्देश्य आदि की परिसमाप्ति स्थान में वारीक डोरा पिरो कर बढ़ा हुआ बाहर छोड़ दिया जाता था । जैसे आजकल फ्लेग चिन्हित किया जाता है और उससे ग्रंथादि का प्रसंग खोजने में सुविधा होती है. वैसे ही ताडपत्रीय युग की यह पद्धति थी। पुस्तक संशोधन के संकेत चिन्ह :
जिस प्रकार लेखन और संशोधन में पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम, अल्प विराम, प्रश्न विराम, आश्चर्यदर्शक चिन्ह, अर्थद्योतक चिन्ह, छन्द समास द्योतक चिन्ह. शक्ति पाठ द्योतक चिन्हादि प्रचलित हैं, पुराकालीन जैन विद्वानों ने भी लेखन सौष्ठय को ध्यान में रख कर विविध चिन्हों का प्रयोग किया है । वे चिन्ह कव और किस स्थिति में प्रयुक्त होते थे उसका यहां निर्देश क्यिा जाता है -
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इन चिन्हों की पहचान इन नामों से कीजिए
१. पतितपाठ दर्शक चिह्न-लेखकों की असावधानी से छूटे हुए स्थान पर यह चिन्ह करके हांसिये पर त्रुटक पाठ लिखा जाता है और दोनों स्थान में चिन्ह कर दिए जाते हैं।
२. पतित पाठ विभाग दर्शक चिह्न—यह चिन्ह छूटे हुए पाठ को वाहर लिखने के उभय पक्ष में दिया जाता है जिससे अक्षर या पाठ का सेल-मेल न हो जाय। इसके पास 'ओ' या 'पं' करके जिस पंक्ति का हो नम्बर दिया जाता है।
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