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७. डबल पाठ-कितनी ही वार लेखक ग्रन्थ लिखते पाठ को डबल लिख डालते हैं जिससे लिखित पुस्तक में पाठ-भेद की सृष्टि हो जाती है। जैसे-सव्व पासणिएहिं सव्व पासणिएहि-सव्वपासत्थपासणिएहि. तस्सरूव-तस्सरू वस्सरूव इत्यादि ।
८. पाठ स्खलन-ग्रन्थ के विषय और अर्थ से अज्ञात लेखक कितनी ही बार भंगकादि विषयक सच्चे पाठ को डबल समझ कर छोड़ देते हैं जिससे गम्भीर भूलें पैदा होकर विद्वानों को भी उलझन में डाल देती है।
अधिक पाठ को हटाए हुए रिक्त स्थान को लकीर तथा अन्याकृति से पूर्ण कर दिया जाता था। सोलहवीं शताब्दी में प्रति संशोधन में आई हुई काटाकाटी की असुन्दरता को मिटाने के लिए सफेदा या हरताल का प्रयोग होने लगा। अशुद्धि पर हरताल लगा कर शुद्ध पाठ लिखा जाने लगा। अशुद्ध अक्षर को सुधारने के लिए जैसे 'च' का 'व' करना हो, '' का 'प' करना हो, 'थ' का 'य' करना हो तो अक्षर के अधिक भाग को हरताल आदि से ढक कर शुद्ध कर दिया जाता । यही प्रणाली आज तक चालू है। त्रूटक पाठ को लिखने के लिए तो उन्हीं चिन्हों को देकर हांसिये में लिखना पड़ता व आज भी यही रीति प्रचलित है ।
इस प्रकार अनेक कारणों से लेखकों द्वारा उत्पन्न भ्रान्ति और अर्ध-दग्ध-पण्डितों द्वारा भ्रान्ति-भिन्नार्थ को जन्म देकर ऊपर निर्दिष्ट उदाहरणों की भांति सही पाठ निर्णय में विद्वानों को बड़ी असुविधा हो जाती है ।
ग्रन्थ संशोधन के साधन :
ग्रन्थ संशोधन करने के लिए पीछी, हरताल, सफेदा, घंटो ( ओपणी), गेरु और डोरे का समावेश होता है। अतः इन वस्तुओं के सम्बन्ध में निर्देश किया जाता है। .
संशोधकों की निराधार कल्पना :
प्रायोगिक ज्ञान में अधूरे संशोधक शब्द व अर्थ ज्ञान में अपरिचित होने से अपनी मतिकल्पना से संशोधन कर नए पाठ-भेद पैदा कर देते हैं, सच्चे पाठ के बदले अपरिचित प्रयोग देकर अनर्थ कर डालते हैं। खण्डित पाठ की पूर्ति करने के बहाने संशोधकों की मति-कल्पना भी पाठभेदों में अभिवृद्धि कर देती है क्योंकि पत्र चिपक जाने से, दीमक खा जाने से रिक्त स्थान की पूर्ति दूसरी प्रति से मिलाने पर ही शुद्ध होगी अन्यथा कल्पना प्रसूत । पाठ भ्रान्त परम्परा को जन्म देने वाले होते हैं।
पींछी--चित्रकला के उपयोगी पीछी-ब्रश आदि हाथ से ही बनाने पड़ते और उस समय टालोरी-खिसकोली के वारीक बालों से वह बनती थी। ये बाल स्वाभाविक ग्रथित और टिकाऊ होते थे। कबूतर की पांख के पोलार में पिरो कर या मोटी बनाना हो तो मयूर के पांखों के ऊपरी भाग में पिरोकर तैयार कर ली जाती थी। डोरे को गोंद आदि से मजबूत कर लिया जाता और वह चित्रकला या ग्रन्थ संशोधन में प्रयुक्त हरताल, सफेदा आदि में प्रयुक्त होती थी।
ग्रन्थ संशोधन की प्राचीन अर्वाचीन प्रणाली :
ज्ञान भण्डारस्थ ग्रन्थों के विशद् अवलोकन से विदित होता है कि लिखते समय ग्रन्थ में भूल हो जाती तो ताड़पत्रीय लेखक अधिक पाठ को काट देते या पानी से पोंछ कर नया पाठ लिख देते थे । छटे हुए पाठ को देने के लिए 'A' पक्षी के पंजे की आकृति देकर किनारे XX के मध्य में 'A'देकर लिखा जाने लगा था।
हरताल-यह दगड़ी और बरगी दो तरह की होती है। ग्रन्थ संशोधन में 'वरगी हरताल' का प्रयोग होता है। हरताल के वारीक छने हुए चूर्ण को बावल के गोंद के पानी में मिला कर, घोटकर, आगे वताई हुई हिंगुल की विधि से तैयार कर सुखा कर रखना चाहिए।
सफेदा-सफेदा आज कल तैयार मिलता है। उसे
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