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________________ जाते थे । एक जैसी प्राचीन लिपि और मोड़ के भेद से, भाषा व विषय की अनभिज्ञता से जो भ्रान्तियां नजर आती हैं उनके कुछ कारण अक्षरों की मोड़, साम्य व अन्य भ्रान्तियां हैं । यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुतकिये जाते हैं परितुट्ठि, नचैव-नदैवं अरिदारिणी-अरिवारिणी-अविदारिणी, दोहलक्खेविया-दोहलक्वंदिया, नंदीसरदीवगमणसंभवजणमंडियं-नंदीसरदीवगमणसंभवजिणमंडियं. घाणामयपसादजणण-घणोगयपसाद जणण. गयकुलासण्ण-रायकुलासण्ण, सच्च-सत्व-सत्तं विच्छढदाणजलाविलकपोलाविगजा- . विच्छढदाणजलवित्त घोलविवजा, इत्यादि । १. लिपिभ्रम म स राग ववत था थ्य पा प्य सा स्य षा प्य त तू द्दद्वद्ध द्र ग्र ग्ग ग्ज २. पड़ी मात्रा विषयक भ्रम-कितने ही लेखक पड़ीमात्रा-पृष्ठमात्रा का रहस्य न समझ कर एक दूसरे अक्षर के साथ उसकी मात्रा को लगा कर भ्रान्तपाठ की सृष्टि कर डालते हैं जिससे संशोधन कार्य बड़ा दुरूह हो जाता है। यत तन्न च्च थ करु खर व स्व गरा घप्पवथ प्य चवठध छव जज्ञ अज ਟ ਠ ਵ ड र म तव धव न त व नु तु . प य ए फ पु भ सम किसलयकोमलपसत्थपाणी-किंसयलक्खामलपत्यपाणी; तारानिकर-तरोनिकर-तमोनिकर; आसरासीओ-असेरासीओअसेससीओ. इत्यादि। वु तु पप्य थ घ ज्ज व्व द्य सूस्त स्व मू त्य च्छ कृक्ष त्व च न प्रा था टाय थ एय णा एम ए पय ऐ पे ये क्व क्र कूक्ष तपू पृ सु मु प्ठ ष्व ष्ट ब्द त्मत्स ता त्य कूक्त क्र ३. पतितपाठ स्थान परिवर्तन-कितनी ही बार छूटे हुए पाठ को हांसिए में संशोधन द्वारा लिखा जाता है जिसे प्रतिलिपिकार संकेत न समझ कर अन्य स्थान में उसे लिख देते हैं ऐसे गोलमाल प्रतिलिपि करते समय आए दिन देखने में आते हैं। ४. टिप्पण प्रवेश-संशोधक द्वारा हांसिए पर किये गये टिप्पण पर्याय को प्रति लपिकार भ्रान्तिवा ग्रन्थ का छूटा हुआ पाठ समझकर मूल पाठ में दाखिल कर देते हैं। यध इस प्रकार कितनी ही लम्बी सूची दी जा सकती है। अक्षरभ्रांति से उत्पन्न पाठ-भेद में भिन्नार्थ, समानार्थ भी घटित हो सकता है और इस चक्कर में बड़े-बड़े विद्वान भी फंस जाते हैं । भ्रांत लेखन से उत्पन्न पाठ भेदों को देखिये ५. शब्द पण्डित लेखकों के कारण-कितने ही लेखक अमुक शब्दों के विशेष परिचित होने से मिलते-जुलते स्थान में अघटित फेरफार कर डालते हैं-भ्रांतिवश हो जाता है जिससे संशोधक के लिये बड़ी कठिनाई हो जाती है। प्रभव-प्रसव, स्तवन-सूचन, यच्चा -यथा, प्रत्यक्षतोवगम्या प्रत्यक्षबोधगम्या, नवा-तथा, नच तब, तद्वा-तथा, पवत्तस्त-पवन्नस्स.जीवसात्मीकृतं-जीवमात्मीकृतं परिवुढि ६. अक्षर या शब्दों की अस्त-व्यस्तता-लेखक लिखते -लिखते अक्षरों को उलट-पुलट कर डालते हैं जिससे पाठान्तरों की अभिवृद्धि हो जाती है। यत-दाएइ-दाइए । १०० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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