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________________ हुई स्याही से ग्रन्थ लिखा जाता था। लिखावट सूख जाने पर अकीक आदि की ओपणी से घोटकर 'ओपदार बना लिए जाते थे। इन पत्रों के बीच में व हांसिये में विविध मनोरम चित्र हंसपंक्ति, गजपंक्ति आदि से अलंकृत करके अद्वितीय नयनाभिराम बना दिया जाता था। कतरितग्रन्थ-कागज को केवल अक्षराकृति में काट कर बिना स्याही के अलेखित ग्रन्थों में मात्र एक 'गीतगोविन्द' की प्रति बड़ौदा के गायकवाड़ ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट में है। बाकी फुटकर पत्र एवं चित्रादि पर्याप्त पाये जाते हैं । मिश्रिताक्षरी-छोटे-बड़े मिश्रित अक्षरों की प्रतियों का परिचय वर्णन टबा, बालावोध की एवं सपर्याय प्रतियों में चारुतया परिलक्षित होता है। स्वर्गाक्षरी, रौप्याक्षरी स्याही की लिखी हुई ताड़पत्रीय पुरतकें अव एक भी प्राप्त नहीं हैं पर महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल महामात्य ने अनेक स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ लिखाए थे जिसका उल्लेख कुमारपाल प्रबन्ध व उपदेशतरंगिणी में पाया जाता है। वर्तमान में प्राप्त स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ पन्द्रहवीं शती से मिलते हैं। रौप्याक्षरी उसके परवर्ती काल से मिलते हैं। स्वर्णाक्षरी प्रतियां कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं और क्वचित् भगवती सूत्र , उत्तराध्ययन सूत्र, नवस्मरण, अध्यात्मगीता, शालिमदरास एवं स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं। गुटकाकार ग्रन्थ-इनका एक माप नहीं होता । ये छोटे-बड़े सभी आकार-प्रकार के पाये जाते हैं । पोथिये गुटके आदि बीच में सिलाई किये हुए, जुज सिलाई वाले भी मिलते हैं। बराबर पन्नों को काटकर सिलाई करने से आगे से तीखे और अवशिष्ट एक से होते हैं । उनकी जिल्दें भी कलापूर्ण, सुरक्षित और मखमल, छींट, किम्ख्वाप-जरी आदि की होती हैं । कुछ गुटके सिलाई करके काटे हुए आजकल के ग्रन्थों की भाँति मिलते हैं। माप में वे दफ्तर की भाँति बड़े-बड़े फुलस्केप साइज के, डिमाई साइज के व क्राउन व उससे छोटे लघु और लघुतर माप के गुटके प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। उनमें रास, भास, स्तवन, सज्झाय, प्रतिक्रमण, प्रकरण, संग्रहादि अनेक प्रकार के संग्रह होते हैं । हमारे संग्रह में ऐसे गुटके सैकड़ों की संख्या में हैं जो सोलहवीं शताब्दी से वीसवीं शती तक के लिखे हुए हैं । सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ-ताड़पत्रीय युग में सूक्ष्माक्षरी प्रतियां नहीं मिलती. पर कागज के ग्रन्थ लेखन में सूक्ष्म अक्षरों का त्रिपाठ, पंचपाठ आदि लेखन में पर्याप्त प्रयोग हुआ। साधओं को विहार में अधिक भार उठाना न पड़े इस दृष्टिकोण से भी उसका प्रचलन उपयोगी था। ज्ञानभण्डारों में कई एक सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ पाये जाते हैं। यों केवल एक पत्र में दशवकालिकादि आगम लिखे मिलते हैं । तेरापंथी साधओं ने तथा कुछ कलाकारों ने सूक्ष्माक्षर में उल्लेखनीय कीर्तिमान कायम किया है, पर वे पठन-पाठन में उपयोगी न होकर प्रदर्शनी योग्य मात्र हैं। पुस्तक संशोधन : स्थलाक्षरी ग्रन्थ-पठन-पाठन के सुविधार्थ बिशेप कर सम्वत्सरी के दिन कल्पसूत्र मूल का पाठ संघ के समक्ष वांचने के लिये स्थलाक्षरी ग्रन्थ लिखे जाते थे। कागज युग में इसका पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता है। हस्तलिखित ग्रन्थों में प्रति से प्रति की नकल की जाती थी। ऊपर वाली प्रति यदि अशुद्ध होती तो उस विना संशोधित प्रति से नकल करने वाला भाषा और लिपि का अनभिज्ञ लेखक भ्रान्त परम्परा और भूलों की अभिवृद्धि करने वाला ही होता । फलस्वरूप ग्रन्थ में पाठान्तर, पाठभेद का प्राचर्य होता जाता और कई पाठ तो अशुद्ध लेखकों की कृपा से ग्रन्थकार के आशय से बहुत दूर चले [ ९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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