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राजस्थान का एक प्राचीन ।
तीर्थ जावर
श्रेष्ठी कान्हा ने वीर विहार नामक जैन मंदिर बनवाया था। यह परिवार देलवाड़ा (मेवाड़) का रहने वाला था एवं व्यापार हेतु डूंगरपुर एवं जावर में भी रहता था । वीर-विहार में खरतरगच्छ की पिप्पलिका शाखा एवं जिनभद्रसूरि की मुख्य शाखा के साधुओं के भी अप्रका-. शित लेख हैं जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।
यहां का मुख्य मंदिर शांति जिनालय है। यह अब भग्न है। इसका निर्माण वि. सं० १४७८ में श्रेष्ठी धनपाल ने किया है .३ जिसके लिये शिलालेख में 'श्री शत्रु
जय-गरनार-अबंद जीरापल्ली-चित्रकूटा दि तीर्थ यात्रा कृतः श्री संघ मुख्य' लिखा है। यह शिलालेख लम्बा एवं ऐतहासक मह व का है। इसमें प्रारम्भ में 'संवत १४७८
वर्ष पौष श० ५ राजा धराज श्री मोकलदेव विजयराज्यो' -श्री रामवल्लभ सोमानी, जयपुर शब्द है । इससे इस बात की पुष्टि होती है कि यह उस समय
मेवाड़ राज्य में सम्मिलित था। इसकी प्रतिष्ठा तपागच्छ जावर उदयपुर से डूंगरपुर के मार्ग से टीडी के सोमसुन्दर सूरि ने की थी। सोम सौभाग्य काव्य में से १० कि० मी० दूर है। प्राचीन काल से ही यह दिये गये वर्णन के अनुसार सोमसुन्दर सूरि मेवाड़ में स्थान जस्ते की खानों के लिये प्रसिद्ध रहा है। वि० देलवाड़ा एवं चित्तौड़ कई बार पधारे थे। गोड़वाड़ - सं०७०३ के सामोली के शिलालेख के अनुसार वसंतगढ़ जिनमें राणकपुर भी सम्मिलित है इनका कार्य-क्षेत्र था । निवासी श्रेष्ठी जैतक व्यापार हेतु इस क्षेत्र में आया था। जावर के इस लेख में तपागच्छ के मुख्य साधुओं के नाम उस समय यहां जस्ता एवं चांदी बड़ी मात्रा में खानों से हैं जो इस प्रतिष्ठा के समय वहां उपस्थित थे । यथा-मुनि निकलती थी। इसीलिये यह क्षेत्र मेवाड़ के राजाओं के सुन्दर, जयचंद्र, भुवन सन्दर, जिन सुन्दर, जिनकीति विशाल हाथ से छीनकर कुछ समय कल्याणपुर के गुहिलोत शासकों राज, रत्नशेखर उदयनन्दि,महोपाध्याय सत्यशेख एवं बागड़ के अधीन भी रहा। मध्यकाल में महाराणा सोमदेव आदि। इतने मुख्य साधुओं के एक साथ होने
लाखा ने इसे जीताया। उसके लिए मेवाड़ के शिलालेखों से पता चलता है कि यह प्रतिष्ठा काफी विशाल स्तर पर _ में योगिनीपुर जावर को जीतने का लिखा है। वि० सं० हुई थी। इस मंदिर का वर्णन कवि लावण्य समय विर
१४६२ के एक ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा लाखा ने चित सुमति साधु सूरि विवाहलो में किया गया है। इसमें देवी के मंदिर के निमित्त २ टंका दिये थे।' महाराणा लिखा है कि नगर के मध्य अत्यन्त सुन्दर शांति जिन लाखा के ही राज्य का उल्लेख वि० सं० १४६४ की मलय- विहार है (नगर विचिहिं अति रुअ डलउ शांति जिणंद गिरि की सप्तति टीका की प्रशस्ति के श्लोक १२ में बिहार रे)। श्रेष्ठी कान्हा द्वारा वि० सं० १४८६ में देवहै ।२ इस प्रशस्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना यह भी है कि कुलिका बनाई गई थी जिसका सूत्रधार सहदेव था। इसी १ लेखक की कृति हिरट्री ऑफ मेवाड़, पृ० ११२ । २ एल० डी० इन्स्टिटयूट, अहमदाबाद द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों की सूची भाग के अंत में पृ० ६२ पर दी
गई प्रशस्ति । ३ विजयधर्म सूरि, जैन लेख संग्रह, भाग १, सं० १४३ । ४ एन्यूअल रिपोर्ट आन इंडियन एपिग्राफी, वर्ष ५६-५७, सं० ५१७ ।
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