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सम्राट अकबर के अधिकार में आनेके पश्चात् सम्राद् अकबर के कृपापात्र कछवाहा वंशीय महाराजाधिराज जगन्नाथ के अधिकार में रणथंभौर होने का उल्लेख जेन कवि रत्नकुश जंगणि कृत 'लीमसीभाग्याभ्युदय में आता है। इस महाकाव्य के अनुसार महाराजा जगन्नाथ ने तोडानगर निवासी अग्रवाल गर्गगोत्रीय श्वेताम्बर जैन मन्त्रीश्वर खीनसी को बुलाकर सं० १६४६ पौष शुक्ला हेलि तिथि पुष्य नक्षत्र के दिन उसे "मन्त्रीश्वर" पदारूढ़ किया था इन्हीं मन्त्रीश्वर ने रणथंभौर दुर्ग में कीर्तिस्तम्भ के सदृश्य जिनालय कराके उसमें बड़े समारोह के साथ १९ वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ प्रभु को भव्य प्रतिमः प्रतिष्ठित करायी थी । अभी रणस्तंभपुर में दुर्ग पर केवल एक जैन मन्दिर है जिसमें श्री सुमतिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान है जो श्वेताम्बराचार्यप्रतिष्ठित है। प्रतिमा पची की हुई नहीं है। नहीं कहा जा सकता कि यह मन्दिर वही सीमसी मन्त्रीश्वर कारित है या अन्य है। किले ( पहाड़ी ) के निम्नभाग में भी जैन मन्दिर था जो अब खण्डहर होगया है । वहाँ जंगली पशुओं का अड्डा होने की सूचना भी वहाँ वालों से मिली थी।
सतरहवीं शती के जैन कवि कनकसोम, जो अकबर आमन्त्रित खरतरगच्छाचार्य युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरिजी के साथ सं० १६४८ में लाहौर गये थे, भी रणथंभौर पधारे थे और उन्होंने 'नेमिफाग' नामक रचना भी यहीं की थी, जैसा कि उसके निम्न अंश से प्रकट है
नेमि चले अविचल पदइ हो धन-धन प्रीतम राग । कनकसोम इण परिरच्यो, गढ़-गिणथंभर फाग ||३०||
इसी प्रकार एक अज्ञात जैन कवि ने सं० १६२५ में साह चोखा के अनुरोध से 'सीताप्रबन्ध' की रचना की थी, जिसकी अन्तिम गाथा इस प्रकार है
संवत सोल अठवीस वर्षे. गढ रिणथंभर अति ही जगीसह ।
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साह चोखा कहन थी कीयउ सेवक जननि सिवसुस दीयउ ||३४९||
सं० १६६७ में आगरा से श्री विजयसेनसूरिजी को भेजे गये विज्ञप्तिपत्र से प्रमाणित है कि उपर्युक्त संवत् में १२ दिन की पर्युषण पर्व सम्बन्धी अमारि दूसरे देशों की भाँति रणथंभौर में भी पालन की गई थी ।
श्रीयुत् मेरुदानजी साहव हाकिम कोठारी के यहाँ १० सुन्दर विशाल चित्र अकबरनामा से सम्बन्धित लगे हुए हैं, जिनमें रणथंभौर से सम्बन्धित ४ चित्र हैं जो बड़े ही सुन्दर और महत्वपूर्ण है। इनका साईज २०×१० इंच है। इन चित्रों के नीचे निम्नोक्त परिचय लिखा हुआ है
१) अकबर की फौजें सन् १५६८ में रणथंभौर किले में राव सरजन को घेर रही हैं।
२) रणथंभौर किले पर अकबर धावे के समय तोपों को वेलों द्वारा पहाड़ी पर ले जा रहा है।
३) सन् १५६८ में रणथंभौर किले पर अकबर राव सरजनहारा के विरुद्ध धावा कर रहे हैं।
४) सन् १५६८ में राय सरजनहारा की अधीनता स्वीकार करने के बाद अकबर रणथंभौर किले में प्रवेश कर रहा है।
इन चित्रों में रणथंभौर दुर्ग का जैसा तत्कालीन दृश्य दिखाया गया है. दुर्ग की वर्तमान परिस्थिति से तुलना करने पर बड़ा ही परिताप होता है। जहाँ मीलों की दूरी में ऊपर और दुर्ग के नीचे हजारों घरों की बस्ती थी वहाँ आज जनशून्य प्रदेश ही दृष्टिगोचर होता है. जंगल की अधिकता से प्रतिदिन पचासों ऊँटों से लकड़ी के कोयले बनाकर सवाई माधोपुर लाये जाते हैं। और बिक्री किये जाते हैं तथा बाहर चालान किये जाते हैं । वहाँ जलाशयों को बाँधकर विद्युत उत्पन्न करने की
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