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________________ श्वे० लेखों की प्रतिमाएं दि० मुद्रा की मथुरा में प्राप्त हुई हैं अतः ऐसी प्रतिमायें समान रूप में दोनों सम्प्रदाय मान्य थी। प्राचीनकाल की ऐसी प्रतिमाओं को दिगम्बर सम्प्रदाय का ही बतलाना सर्वथा अनुचित है। पं० बलभद्र जैन ने पार्श्वनाथ कालीन दिगम्बर परम्परा का प्रभाव लिखा है पर प्राचीन जैनों के अनुसार तो पार्श्वनाथ के अनुयायी मुनि वस्त्रधारी थे । अहिच्छत्रा पर तो श्वेताम्बर प्रभाव था ही यह प्राचीन काल से अब तक के श्वेताम्बर उल्लेखों से स्पष्ट है । यों प्राचीन काल में जैन तीर्थ दोनों सम्प्रदाय के लिए समान रूप से मान्य रहे हैं । तीर्थंकरों के उपसर्ग-स्थान बहुत से हैं पर तीर्थरूप में मान्य होने का महत्व केवल अहिच्छत्रा को ही मिला है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रायः सभी प्रतिमाएं फण युक्त होती हैं चाहें सात फग, नौ फग या सहस्रफण | जैसी भी हो श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी के मान्य है । उस की कला में विविधता और विकास की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है पर मस्तक पर फणों का होना यह अहिच्छत्रा तीर्थ की ही देन है। पद्मावती के मस्तक पर पार्श्वनाथ स्वामी की विविध प्रतिमाएं पाई जाती हैं । मन्दिरों में अधिष्ठातृ रूप पद्मावती प्रतिमा के मस्तक पर भी पार्श्वनाथ प्रतिमा निर्मित होती है। तीर्थंकरों के पाँच कल्याणकवाले स्थान तो तीर्थं रूप में प्रसिद्ध है और उनके उपसर्ग स्थल की तीर्थ रूप में प्रसिद्धि अहिच्छत्रा की ही है और इतने लम्बे काल का अर्थात् भ० महावीर से पहले २८०० वर्ग का दोनों सम्प्रदाय का यह प्राचीन मान्य तीर्थ है। श्रीजिनप्रभसूरिजी ने अहिच्छत्रा नगरी कल्प की प्रारंभिक गाथा में "तिहुअण माणूति जए पयर्ड" वाक्य द्वारा तथा चतुरशीति महातीर्थ नाम संग्रह कल्पः में "अहिच्छत्रायां त्रिभुवन भानुः" वाक्य द्वारा संबोधित किया है। Jain Education International मुनिप्रभसूरि ने भी अपनी अष्टोतरी तीर्थमाला में अहिच्छत्रा के पार्श्वनाथ भगवान को त्रिभुवन भानु नाम से संबोधित किया है अतः यह पार्श्वनाथ स्वामी के विविध नामों की भाँति श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध प्राचीन नाम है जो परवर्ती काल में विस्मृत हो गया प्रतीत हंता है। पाटन भंडार के शांतिसमुद्र कृत अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ नमस्कार गा० ५ में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ को नवफण मंडित लिखा है। युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्त सूरिजी ने नरहड़ आदि स्थानों में नवफणा पार्श्वनाथ प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की उसका आधार अहिच्छत्रा तीर्थ हो तो आश्चर्य नहीं निश्चित तो अहिच्छत्रा में वैसी प्राचीन प्रतिमा प्राप्त होने पर ही कहा जा सकता है। आनन्दकीर्त्तिकृत अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ स्तवन (सं० १६८०) ढाल १ नणदलरी अहिछत्ता प्रभु भेटीया, मन धरि अधिक उच्छाह हो जिनवर रोम रोम मन ऊल्हस्यउ दूरि गयउ दुःख दाह हो जिनवर ||| १ || अंकणी ॥ पासनाह जगि परगड़उ महियल महिमा जास हो जि० इण कलि तो सम को नहीं, दिन दिन अधिक प्रकाश हो जि० ||२|| ajo समरथ साहिब तूं सदा, सयल जन्तु आधार हो जि० दूर देशथी आविया कीजइ सेवक सार हो जि० ॥३॥ अं० पुण्य जोगि मंइ पामियउ दरसण श्री जिनराज हो जि० नख शिख मुझ आनंद भयउ फलिया बंधित काज हो जि० ॥४॥ अंo हिव हूं सरणइ ताहरउ दीन हीन प्रतिपाल हो जि० निज सेवक आणंद सु. कूरम नयण निहालि हो जि० ॥५॥अं० [ १९९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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