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ढाल २- सजनी री
नित्यविजयकृत अहिच्छत्रा पार्व
स्तवन (सं० १७६३)
दाल १-नींद्रडली बैरणि होइ रही ए जाति
मात पिता तूंही सदा, तूं-ही जाण सुजाण ललना । भवि भवि तूं ही वालहउ, प्रभु भावइ जाण म जाण ||६||
ललना। मा०॥ पासनाह जागि सेहरउ, नयन सुधारस मेह ललना। नयन वयन देखत सदा. रोमंचित हुवे देह ललना ॥७॥मा०। हुँ बालक प्रभु ताहरउ, तूं साहिब सिरदार ललना । भव सायर बीहामणउ.तिणथी पार उतार ललना ॥८॥ मा०। सेवक जन दुखिया थका, हुवइ साहिब नई लाज ललना। तिण कारण विमाहरा रे, उत्तम सारउ काज ललना ।।९||
मा०। देस देस जस ताहरउ. गावइ बाल गोपाल ललना। कृपा करी नइ माहरा, रोग सोग दुख टाल ललना ||१०|| चीतइ चढियउ माहरइ. अंतरयामी एक ललना। प्रेम करउ आणंदस, एहिज उत्तम टेक ललना ॥११॥ मा०।
ढाल ३-महिदी री मन मोहयउ तह माहरउरे, तुम रंग राती देह। रू' रू' रंग भेटी रह्यउ रे, अउ कछु अधिक सनेह ।।१२।। अहिछत्ता प्रभु भेटीया रे, मन धरी अधिक अणंद । सुंदर रूप सुहांमणउ, प्रभु दीठा चित लाय ।। पाप ताप दूरइ गयउ रे, पवित्र थई मुझ काय ।।१३।। अ०।। सरीसइ संखेसरइरे, गउड़ी फलवद्धि पास । राजनगर खंभातइ रे, ठाम ठाम पूरइ आस ||१४|| अ०)। तँ सुरतरु सुरमणि समउरे, वछित पूरणहार । वाट घाट नित जागतउ रे, जाणइ सयल संसार ||१५|| अं हरिहर ब्रह्मादिक घणा रे, मुझ दीठा न सुहाई। तो सरिखउ जगि को नहीं रे, जिग भेटयां दुख जाई ||१६||
अंol संवत सोले अस्सीयइरे, मगसिर सुदि रविवार । बारस दिन प्रभु भेटीया रे मन धरि हरख अपार ।।१७।।अ०|| सुख संपति करिजे सदा रे, साहिब सुजस निवास । आणंदकीरति सं सदा रे, श्री संघ पूरी आस ॥१८अ
काशी देश पूरब दिशि कहै, नयरी तिहा हो वाणारसी नाम | निकट बहै गंगा नदी, ऋद्धे भरी हो सोभे अभिराम ||१|| परगट अहिछत्तो पासजी, गुण गाउं हो मनधरि उछरंग ॥पर०||
आंकणी।। तिहां अश्वसेन राजा अछेपटराणी हो वामा परधान । तसु उयरइ प्रभु अवतरचा. चेत्र बदि चथि हो सौहै यामिनी नै ग्यान ॥२।प०|| निरमल चवदह सुपना दीठा, मन हरषी हो बामा दे माता। गरभ कल्याणक गुणनिलो, बहुउच्छव हो हरि कीयो विख्यात
॥३||प०॥ पोष दसमि प्रभु जनमीया, सुर नर तिरि हो नारकी पायो सुख तीनेइ त्रिभुवन हरखीया, बहु सुखिया हो किणनै नहीं दुःख
___|पoll ढाल २-राधे तेरे नैन बाण मधु सुंभरे-ए देशी
जोवन में जब परवरचा हो प्रभु परमावती परण्या पासकुमारजी अहो गावं मन उछरंग परगटपासजी अहो दीपै तेज दिणंद,
अहिछत्त पासजी । संसार ना सुख भोगव्या हो जब कारण इक उपना ।
पा० अहोगावं अहिं० ||५|| नेमिनाथ जान चीतरी हो, पेखी पास जिना पा० वैरागी भए राजसू हो. तिहां भावी बारह भावना पा०६|| ए संसार असार है रे, जैसे जगि स्युपनां पा० दीखत कुं दीखै सही रे हो, है न कछु अपना ।पा।
अहो गा० आ० ||७|| ग्रीषम भीषम रितु समै हो, तिसीयां मृग तृसनां पा०) तैसैई यह जाणीयै हो. जोबन चंचल जीवनां ।। पा० ॥८।। पोष इग्यारस तप लीयो तब, मनपर्यव उपनां ।पा। चउसठि इंद्र चिहुँ दिसइ हो, करइ प्रभु कुं वंदना ॥ पा०९॥
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