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उनकी उत्कट जिज्ञासा, अद्भुत प्रतिभा और स्वान्तःसुखाय विद्याव्यसन में अथक अध्यवसाय का ही परिणाम था । फलतः ये नाहटा बन्धु शीघ्र ही विद्वद्गजगत के प्रकाशमान नक्षत्र बनकर चमक उठे।
बन्धुवर स्व० अगरचन्द नाहटा के साथ हमारा सम्पर्क, पत्राचार तथा विचारों आदि का आदान-प्रदान सन् १९४० के कुछ पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। उन्हीं के माध्यम से शनेः-शनैः उनकी साहित्यिक एवं शोध-खोज विषयक प्रवृत्तियों में उनके निकट सहयोगी श्री भंवरलाल नाहटा के साथ भी परोक्ष सम्पर्क वृद्धिगत हुआ। प्रारम्भ में हम उन दोनों को सहोदर समझते रहे-कई वर्ष बाद रहस्य खुला कि वे चाचा-भतीजे हैं। अगरचन्दजी यात्रा बहुत करते थे, अतएव अनेक जैनाजेन विद्वानों के साथ उनके साक्षात् सम्पर्क रहे-हमें भी दो-तन वार उनके दर्शन एवं चर्चावार्ता का लाभ मिला। वह पत्राचार में भी बड़े तत्पर थे। नित्यप्रति दर्जनों पत्र लिखते थे। स्वयं हमें मास में, कभी-कभी एक सप्ताह में ही उनके दो-तीन पत्र मिल जाते थे। इन दोनों ही दिशाओं में भंवरलालजी उनसे बंहत पीछे रहे, किन्तु गंभीर अध्ययन तथा तलस्पर्शी सूक्ष्म शोध-खोज में वह काकाजी से कुछ आगे ही रहे । प्रायः सभी साहित्यिक प्रवृत्तियों में दोनों का परस्पर सहयोग, बहुधा संयुक्त प्रयास रहता रहा । वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक थे। शास्त्र-भंडारों आदि में प्राप्त और मध्यकालीन विविध-लिपियों में लिखित पुरानी हस्तलिखित ग्रन्थ प्रतियों व अन्य दस्तावेजों को पढ़ने. उनका पाठ संशोधनादि करने और ठीक-ठीक पाठार्थ लगाने में भंवरलालजो अत्यन्त दक्ष हैं। आप सुलेखक और आशुकवि भी हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि में सरलता से उत्तम कविता कर लेते हैं, और गुजराती बंगला, असमी, मराठी आदि कई अन्य भाषाएं भी जनते हैं । इतिहास एवं पुरातत्व में भी उनकी अभिरूचि है, और चित्रकला का भी शौक है। गत १४ वर्षों से आप हिन्दी मासिक 'कुशल-निर्देश' का नियमित सुष्ठ सम्पादन करते आ रहे हैं। श्वे० खरतरगच्छ के आप अनुयायी हैं, आध्यात्मिक सन्त स्व० सहजा. नन्दजी महाराज के शिष्य एवं अनन्य भक्त हैं. और आस्थावान जिनधर्मी हैं, तथापि साम्प्रदायिक व्यामोह अथवा स्व-मत के कदाग्रह से ग्रस्त प्रतीत नहीं होते।
१९७४ के पर्यषण पर्व पर हमें कलकत्ता जैन समाज द्वारा आमन्त्रित होकर जब वहां जाने का अवसर मिला तो वहां जैन भवन में आयोजित संयुक्त जैन क्षमापना समारोह में श्री भंवरलालजी से हमारी सर्वप्रथम भेंट हुई। सभारंभ से कुछ पूर्व पांच-सात बन्धुओं के साथ हम सभाभवन में बैठे थे कि पास ही बैठे, भरी हुई खड़ी श्वेत मंछों वाले. ऊँचे कद-काठी के एक श्यामवर्ण मारवाड़ी सज्जन खिसककर निकट आये और धीरे से कहा 'मैं भंवरलाल'इतना ही पर्याप्त था, किन्तु बिना इस संकेत के हमारे लिये उन्हें चीन्हना कठिन था। उनसे मिलने की उत्सुकता तो थी, किन्त उनकी जो अनुमानाधारित छवि हमारे मस्तिष्क में थो, उसके साथ यथार्थ का कोई सादृश्य नहीं था। निस्सन्देह उनसे मिलकर अतीव आनन्द हुआ, बात-चीत भी हुई। ऐसा लगा कि बहुत कम, और नपे तुले शब्द बोलने का अभ्यास है । अनावश्यक या निरर्थक नहीं बोलते । उनके कृतित्व से तो पूर्व परिचय था, व्यक्तित्त्व की भी हृदय पर अच्छी छाप लगी। उनके साथ पत्राचार तो पहिले से ही यदा-कदा होता रहा, उनके आदेश पर कभी-कभी कुशल-निर्देश में प्रकाशनार्थ लेखादि भी भेजे हैं ।
यह ज्ञात करके कि साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में निष्पन्न उनकी अमूल्य सेवाओं के लिये उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है तथा उन्हें एक उपर्युक्त अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है अतीव प्रसन्नता हुई।
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