________________
आदि वंगाल देश के ज्ञानभण्डारों का अपना अनोखा महत्व है। आगमों को प्रारम्भिक मुद्रण युग में सुव्यवस्थित और प्रचुर परिमाण में प्रकाशित करने का श्रेय यहां के राय धनपतसिंह दूगड़ को है । श्री पूरणचन्दजी नाहर की 'गुलाबकुमारी लाइब्रेरी' सारे देश में प्रसिद्ध है। ताड़पत्रीय प्राचीन ग्रन्थ संग्रह के लिए जिस प्रकार जैसल- मेर, पाटण और खंभात प्रसिद्ध है, उसी प्रकार कागज पर लिखे ग्रन्थ बीकानेर और अहमदावाद में सर्वाधिक हैं । दिगम्वर समाज के ताड़पत्रीय ग्रन्थों में मूडविद्री विख्यात है तथा आरा का जैन सिद्धांत भवन, अजमेर व नागौर के भट्टारकजी का भण्डार तथा जयपुर आदि स्थानों के दिगम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था
प्राचीनकाल में ज्ञान भण्डार बिल्कुल बन्द कमरों में रखे जाते थे। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार तो किले पर स्थित संभवनाथ जिनालय के नीचे तलघर में सुरक्षित कोठरी में था । जिसमें प्रवेश पाने के लिए अन्तर्गत कोठरी के छोटे से दरवाजे में से निकलना पड़ता था। अब भी है तो वहीं, पर आगे से कुछ सुधार हो गया है। आगे ग्रन्थों को पत्थर की पेटियों में रखते थे जहां सर्दी व जीव-जन्तुओं की विल्कुल संभावना नहीं थी । ताड़पत्रीय ग्रंथों को लकड़ी की पट्टिकाओं के बीच खादी के विटांगणों में कस कर रखा जाता था । आजकल आधुनिक स्टील की आलमारियों में अपने माप के अल्युमिनियम के डब्बों में ताड़पत्रीय ग्रंथों को सुरक्षित रखा गया है और उनकी विवरणात्मक सूची भी प्रकाश में आ गई है । प्राचीन काल में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र और पत्र संख्यात्मकसूची रहती थी। कहीं-कहीं ग्रंथकर्ता का नाम भी अपवाद रूप में लिखा रहता था । एक ही वण्डल या डाबड़े में कागज पर लिखे अनेक ग्रन्थ रखे जाते और उन्हें क्वचित् सूत के डोरे में लपेट कर दूसरे ग्रंथ के साथ पन्नों के सेलमेल होने से वचाया जाता था। कागज की कमी से आजकल की भांति पूरा कागज लपे
टना महर्य पड़ने से कहीं-कहीं कागज की चीपों में ग्रन्थों को लपेट कर, चिपका कर रखे जाते थे। यही कारण है कि समुचित सार संभाल के अभाव में ग्रन्थों के खुले पन्ने अस्तव्यस्त होकर अपूर्ण हो जाते थे। विधुड़े पन्नों को मिलाना और ग्रन्थों को पूर्ण करना एक बहुत ही दुष्कर कार्य है।
ताडपत्रीय ग्रन्थों को उसी माप के काष्ठफलकों के बीच कस कर बांधा जाता था । कतिपय काष्ठफलक विविध चित्र समृद्धि युक्त पाये जाते हैं । शिखरवद्ध जिनालय, तीर्थकर प्रतिमा चित्र, उपाश्रय में जैनाचयों की व्याख्यान सभा, चतुर्दश महास्वप्न, अष्टमंगलीक, वेलबूटे, राजा और प्रधानादि राज्याधिकारी, श्रावक-श्राविकाएं. वादिदेवसूरि और दि० कुमुदचन्द्र के शास्त्रार्थ आदि के चित्रांकन पाये जाते हैं।
कागज के ग्रन्थ जिन डावड़े-डिव्वों में रखे जाते थे वे भी लकड़ी या कूटे के बने हुए होते थे, जिन पर विविध प्रकार के चित्र बना कर वार्निश कर दिया जाता था। उन डब्बों पर नम्वर लगाने की पद्धति भी तीर्थकर नाम, अष्टमंगलीक आदि के अभिधान संकेतमय हुआ करते थे। हस्तलिखित कागज के ग्रन्थ पूठा, पटड़ी. फाटिया आदि के वीच रखे जाते थे। पूठों को विविध प्रकार से मखमल, कारचोवी, हाथीदांत, कांच व कसीदे के काम से अलंकृत किया जाता था। कई पूठे चांदी. सोने व चन्दनादि के निर्मित पाए जाते हैं, जिन पर अष्ट मंगलीक, चतुदश महास्वप्नादि की मनोज्ञ कलाकृतियां बनी हुई हैं। कूटे के पूठों पर समवसरण, नेमिनाथ बरात, दशाणभद्र, इलापुत्र की नटविद्या आदि विषय विविध कथा-वस्तुओं से सम्बन्धित चित्रालंकृति पाई जाती हैं। कलमदान लकड़ी के अतिरिक्त कूटे के भी मजबूत हल्के और शताब्दियों तक न बिगड़ने वाले बनाए जाते थे। हमारे संग्रह में एक कलमदान पर कृष्णलीला के विविध चित्र विद्यमान हैं। जैसलमेर की चित्र समृद्धि में हंसपंक्ति, बगपंक्ति, गजपंक्ति और जिराफ जैसे जीवजन्तुओं के चित्र भी देखे गए हैं।
१०६ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org