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जैन ज्ञानभण्डारों की व्यवस्था सर्वत्र संघ के हस्तगत रहती आई है तथा उनकी चाबियां मनोनीत ट्रस्टियों के हाथ में होते हुए भी श्रमण वर्ग और यतिजनों के कुशल संरक्षण में रहने से ये संरक्षित रहे हैं। अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथ में अनेक ज्ञानभण्डार रद्दी के भाव बिक कर नष्ट हो गए।
पुस्तकों को रखने के लिए जहाँ चंदन और हाथीदांत से निर्मित कलापूर्ण डिब्बे आदि होते थे वहां छोटे-मोटे स्थानों में मिट्टी के माटे, वैत के पिटारे व लकड़ी की पेटियां व दीवालों में बने आलों में भी रखे जाते थे। इन ग्रन्थों को दीमक, चूहों व ठंडक से बचाने के लिए यथा-संभव उपाय किए जाते थे। सांप की कंचुली घोड़ावज आदि औषधी की पोटली आदि रखी जाती तथा वर्षाती हवा से बचाने के लिए चौमासे में यथासंभव ज्ञानभण्डार कम ही खोले जाते थे। ग्रन्थों की प्रशस्ति में लिखे श्लोकों में जल, तेल, शिथिल बन्धन और अयोग्य व्यक्ति के हाथ से बचाने की हिदायत सतत् दी जाती रही है।
जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का बहुमान, ज्ञानभक्ति आदि की विशद् उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों की पर्युषण में गजारूढ़ शोभायात्रा निकाली जाती है, ज्ञानभक्ति, जागरणादि किए जाते हैं। भगवती सूत्रादि आगम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-बहुमान के ही प्रतीक हैं। ज्ञान पूजा विधिवत् की जाती है और ज्ञान द्रव्य के संरक्षण-संवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है । पुस्तकों को धरती पर न रख कर उच्चासन पर रख कर पढ़ा जाता है। उसे साँपड़ा-साँपड़ी पर रखते हैं. जिसे रील भी कहते हैं। साँपड़ा शब्द सम्पुट या सम्पुटिका संस्कृत से बना है। साधु-श्रावक के अतिचार में ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित बताया है। इसलिए बैठने के आसन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता।
कवली:
ग्रन्थ के पत्रों को अध्ययन के हेतु कवली-कपलिका में लपेट कर रखा जाता था. जिससे पत्रों के उड़ने का भय नहीं रहता। यह कवली बांस की चीप आदि को गूंथ कर ऊपर वस्त्रादि से मढ़ी रहती थी। बारहवीं शताब्दी में युगप्रधान श्री जिनदत्तसरि जी की जीवनी में कवली-कपलिका का प्रयोग होना पाया जाता है।
कांबी:
ग्रन्थ रचना के अनन्तर ग्रन्थकार स्वयं या अपने शिष्य वर्ग से अथवा विशुद्धाक्षर लेखी लहियों से ग्रन्थ लिखवाते थे और विद्वानों के द्वारा उनका संशोधन करा लिया जाता था । लहियां-लेखकों को ३२ अक्षर के अनुष्टुप छंद की अक्षर गणना के हिसाब से लेखन शुल्क चुकाया जाता था । ग्रंथ लिखवाने वालों के वंश की विस्तृत प्रशस्तियां लिखी जातीं और ज्ञानभण्डारों के संरक्षण की ओर सविशेष उपदेश दिया जाता था। ज्ञान पंचमी पर्व और उनके उद्यापनादि के पीछे ज्ञानोपकरण वृद्धि और ज्ञान प्रचार की भावना विशेष कार्यकारी हुई। ज्ञान की आशातना टालने के लिए जैन संघ सविशेष जागरुक रहा है और यही कारण है कि जैन समाज के साथ अन्य भारतीय प्रजा की अपेक्षा सरस्वती भण्डार का सम्बन्ध सर्वाधिक रहा है।
बांस, काष्ठ या हाथीदांत की चीजों की होती थी। उसी कम्बिकावली शब्द से कांबी शब्द वना प्रतीत होता है। चातुर्मास की वर्षाती हवा लग कर पत्रों को चिपक जाने से बचाने में कांबी का प्रयोग उपयोगी था।
जैन समाज ज्ञान के उपकरण दावात, कलम, पाटी, पाठा, डोरा, कंवली, साँपडा-साँपडी, कांबी, बन्धन, वीटांगणा-वेष्टन, दावड़ा, करण्डिया आदि को महर्घ्य द्रव्य से
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