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________________ पैथड़शाह, पर्वत कान्हा एवं भणशाली थाहरुशाह ने ज्ञानभण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था । थाहरुशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है। जैन ज्ञानभण्डारों में बिना किसी धार्मिक भेद-भाव के जो ग्रन्थ संग्रहीत किये गए. आज भी भारतीय वाङ्मय के संरक्षण में गौरवास्पद हैं। क्योंकि अनेक जैनेतर ग्रन्थों को संरक्षित रखने का श्रेय केवल जैन ज्ञानभंडारों को ही है। हुई प्रशस्तियां किसी भी खण्ड-काव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह और कुमारपालदेव ने बहुत बड़े परिमाण में शास्त्रों की ताड़पत्रीय प्रतियां स्वर्णाक्षरी व सचित्रादि तक लिखवायी थीं। यह परम्परा न केवल जैन नरपति श्रावक वर्ग में थी परन्तु श्री जिनचन्द्रसूरिजी को अकबर द्वारा 'युगप्रधान' पद देने पर बीकानेर महाराजा रायसिंह, कुंअर दलपतसिंह आदि द्वारा भी संख्याबद्ध प्रतियां लिखवा कर भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं एवं इन ग्रंथों की प्रशस्तियों में बीकानेर, खंभात आदि के ज्ञानभण्डारों में ग्रन्थ स्थापित करने के विशद् वर्णन पाए जाते हैं । त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपल द्वारा प्रदत्त पुस्तिका के काष्ठफलक का चित्र , जिसमें जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि और महाराज कुमारपाल का चित्र है. इस पर 'नृपतिकुमारपाल भक्तिरस्तु लिखा हुआ है। सम्राट अकबर अपनी सभा के पंडित पद्मसुन्दर का ग्रंथ भण्डार, हीरविजयसूरि को देना चाहता था, पर उन्होंने लिया नहीं, तब उनकी निश्पृहता से प्रभावित होकर उन्होंने आगरा में ज्ञानभण्डार स्थापित किया। जैन श्रावकों ने अपने गुरुओं के उपदेश से बड़ेबड़े ज्ञानभण्डार स्थापित किए थे। भगवती सूत्र श्रवण करते समय गौतम स्वामी के छत्तीस हजार प्रश्नों पर स्वर्णं मुद्राएं चढ़ाने का पेथडशाह. सोनी संग्रामसिंह आदि का एवं छत्तीस हजार मोती चढ़ाने का वर्णन मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के चरित्र में पाया जाता है । उन मोतियों के बने हुए चार चार सौ वर्ष प्राचीन चन्दवा पूठिया आदि पचास वर्ष पूर्व तक बीकानेर के बड़े उपाश्रय में विद्यमान थे। श्री जिनभद्रसूरि जी के उपदेश से जैसलमेर, पाटण, खंभात. जालोर. देवगिरि, नागौर आदि स्थानों में ज्ञानभण्डार स्थापित होने का वर्णन उपाध्याय समयसुन्दर गणि कृत 'कल्पलता' ग्रन्थ में पाया जाता है। धरणाशाह, मण्डन, धनराज और वर्तमान में जैन ज्ञानभंडार सारे भारतवर्ष में फैले हुए हैं । यद्यपि लाखों ग्रंथ अयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा नष्ट हो गए. बिक गए. विदेश चले गए, फिर भी जैन ज्ञानभण्डारों में स्थित अवशिष्ट लाखों ग्रन्थ शोधक विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । गुजरात में पाटण, अहमदावाद, पालनपुर, राधनपुर. खेड़ा. खंभात. छाणी, बड़ौदा, पादरा, दरापरा, डभोई, सिनोर, भरोंच. सूरत एवं महाराष्ट्र में बम्बई व पूना के ज्ञानभण्डार सुप्रसिद्ध हैं। सौराष्ट्र में भावनगर, पालीताना, घोघा, लोंबडी. बढवाण, जामनगर, मांगरौल आदि स्थानों के ज्ञान भण्डार विख्यात् हैं । राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, वाड़मेर, बालोतरा, जोधपुर, नागौर, जयपुर, पीपाड़, पाली, लोहावट, फलौदी, उदयपुर, गढ़सिवाना, आहौर, जालौर, मडारा, चुरु, सरदारशहर, फतेहपुर, किशनगढ़, कोटा, झुझंनं आदि स्थानों में नये-पुराने ग्रन्थ-संग्रह, ज्ञान भंडार हैं । अकेले बीकानेर से हजारों प्रतियां बाहर चले जाने व कई तो समूचे ज्ञानभण्डार नष्ट हो जाने पर भी आज वहाँ लाखों की संख्या में हस्तलिखित प्रतियां विद्यमान हैं । राजकीय अनूप संस्कृत लायब्रेरी में हजारों जैन ग्रन्थ हैं । पंजाब में अंबाला, होशियारपुर, जड़ियाला आदि के ज्ञानभण्डार दिल्ली, रूपनगर में आ गए हैं । आगरा, वाराणसी आदि उत्तर प्रदेश के स्थानों-स्थानों में अच्छे ज्ञानभण्डार हैं। उज्जैन, इन्दौर, शिवपुरी आदि मध्य प्रदेश में भी कई ज्ञानभण्डार हैं । कलकत्ता, अजीमगंज [ १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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