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________________ न देकर संकेत से अर्थ समझने के लिए इन चिन्हों का प्रयोग होता था। साधारण लेखकों की समझ से बाहर विचक्षण विद्वानों के ही काम में आने वाले ये चिन्ह हैं। दार्शनिक विषय के ग्रथों के लम्बे सम्बन्धों पर भिन्न-भिन्न विकल्प चर्चा में उसका अनुसंधान प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के चिन्ह बड़े सहायक होते हैं । विद्वान जैन श्रमण वर्ग आज भी गम्भीर संशोधन कार्य में इन शैलियों का अनुकरण करता है। जैन लेखन कला. संशोधन कला के प्राचीन-अर्वाचीन साधनों पर यहां जो विवेचन हुआ है इससे विदित होता है कि जैन लेखन-कला कितनी वैज्ञानिक, विकसित और अनुकरगीय थी। भारतीय संस्कृति के इतिहास में जैनों का यह महान् अनुदान सर्वदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। जैन ज्ञान भंडारों का महत्त्व : संघोवरि बहुमाणो पुत्थयलिहगं पभावणा तित्थे । सटाणकिच्चमेयं निच्चं सुगुरुवएसेणं ॥५॥ बारहवीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानादिप्रकाश के पांचवें अक्षर में पुस्तक लेखन की बड़ी महिमा गायी है । उस जमाने में ग्रन्थों को ज्ञानभण्डारों में रखा । जाता था । एक हजार वर्ष पूर्व भी राजाओं के यहाँ पुस्तक संग्रह रखा जाता था, सरस्वती भण्डार हते थे। चैत्रवासियों से सम्बन्धित मठ-मन्दिरों में भी ज्ञानकक्ष अवश्य रहता था । सुविहित शिरोमणि श्री वर्द्धमानसरि -जिनेश्वरसूरि के पाटन की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में पाटन के सरस्वती भण्डार से ही 'दशवैकालिक' ग्रंथ लाकर प्रस्तुत किया था । मुसलमानी काल में नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रंथागार की भाँति अगणित ज्ञानभण्डारों व ग्रन्थों को जलाकर नष्ट कर डाला गया था। यही कारण है कि प्राचीनतम् लिखे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। जिस प्रकार देवालयों और प्रतिमाओं के विनाश के साथ-साथ नव-निर्माण होता गया उसी प्रकार जैन शासन के कर्णधार जैनाचार्यों ने शास्त्र निर्माण व लेख्न का कार्य चालू रखा । जिसके प्रताप से आज वह परम्परा बच पायी । भारतीय ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में जैन ज्ञानभण्डार एक अत्यन्त गौरव की वस्तु है। ज्ञान भडारों की स्थापना व अभिवृद्धि : हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा कुमारपाल प्रबन्ध, वस्तुपालचरित्र, प्रभावकचरित्र. सुकृतसागर महाकाव्य, उपदेशतरंगिणी, कर्मचन्दमंत्रिवंश-प्रवन्ध, अनेकों रास एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों-करोड़ों के सव्यय से ज्ञान-कोश लिखवाने तथा प्रचारित करने के दिशद् उल्लेख पाए जाते हैं । शिलालेखों की भांति ही ग्रन्थ-लेखन-पुष्पिकाओं व प्रशस्तियों का बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्व है। जैन राजाओं, मन्त्रियों एवं धनाढ्य श्रावकों के सत्कार्यों की विरुदावली में लिखी प्रारम्भ में जो जैन श्रमण वर्ग श्रुतज्ञान को लिपिवद्ध करने के विपक्ष में था वह समय के अनुकूल उसे परम उपादेय मानने लगा और देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण के समय से ज्ञानोपकरण का सविशेष प्रयोग करने के लिए उपदेश देने लगा । आज हमारे समक्ष तत्कालीन लिखित वाङ्मय का एक पन्ना भी उपलब्ध नहीं है । अतः वे कैसे लिखे जाते थे, कैसे संशोधन किये जाते थे, कहां और किस प्रकार रखे जाते थे, इस विषय में प्रकाश डालने का कोई साधन नहीं है । गत एक हजार वर्ष के ग्रन्थ व ज्ञानभण्डार विद्यमान हैं जिनसे हमें मालूम होता है कि श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि में जेन श्रमण और श्रावक वर्ग ने सविशेष योगदान किया था। श्री हरिभद्रसूरिजी ने योगदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना पूजना दानं' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । 'मण्ह जिणाणं आण' सज्झाय में पुस्तक लेखन को निम्नोक्त गाथा में श्रावक का नित्य-कृत्य बतलाता है। १०४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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