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________________ प्रतिष्ठा की है। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न कोई अन्य शक्ति ही मानव की निर्धारक है । मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म किसी विश्वनियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म- दशा को प्राप्त कर सकता है। उसने कहा 'अप्पा सो परमप्या अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी की कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ के द्वारा परमात्मपद को प्राप्त करना है । (ख) मानव मात्र की समानता का उद्घोष— जैनधर्म की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद जातिवाद आदि उन सभी अवधारणाओं की जो मनुष्यमनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न करती है अस्वीकार किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति विशेष या कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और सम्पति ही। वह वर्ण, रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है । उत्तराध्ययन सूत्र के १२ वें एवं २५ वें अध्याय में वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर करारी चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, नेधावी और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है। और वही श्रेष्ठ है न कि किसी कुल विशेष में जन्म लेनेवाला व्यक्ति । ३५ ३६ उत्तराध्ययन, १२ / ४४ वही, १२ / ४६ । Jain Education International (ग) यश आदि बाह्य किया काण्डों का आध्यात्मिक अर्थ- जैन परम्परा ने यश, तीर्थ-स्नान आदि धर्म के नाम पर किये जानेवाले बाह्य क्रियाकाण्डों की न केवल आलोचना की अपितु उन्हें एक आध्यात्मिक अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यश के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उसमें कहा गया है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां ही कलछी ( चम्मच ) है और कर्मों ( पापों ) का नष्ट करना ही आहुति है । यही यज्ञ शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यश की प्रशंसा की है। *५ तीर्थ स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया है कि धर्म जलाशय है। ब्रह्मचर्यं घाट ( तीर्थ ) है ; उसमें स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है । ३६ । (घ) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की श्रेष्ठता - यद्यपि जैन परम्परा ने धर्म के चार अंगों में दान को स्थान दिया है किन्तु वह यह मानती है कि दान की अपेक्षा भी संयम ही श्रेष्ठ है । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने धर्म को रूढ़िवादिता और कर्मकाण्डों से मुक्त करके आध्यात्मिकता से सम्पन्न बनाया है । For Private & Personal Use Only [ १७ www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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