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करनेवाले ऐसे विचार-बिन्दु हैं, जिनसे सम्यक् दर्शन, कर बैठते हैं। इसीलिए, भगवान महावीर ने कर्मणा सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की उपलब्धि सम्भव जाति की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए कहा: होती है और मोक्ष का मार्ग उद्घाटित होता है।
कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। लोकेषणा या लोकहित श्रमण संस्कृति के उदात्त कम्मुणा बइस्सो होइ सुद्धो हवइ कम्मुणा ॥ दृष्टिकोण का महनीय पक्ष है। आधुनिक लोकदृष्टि
-उत्तरा० २५/३१ इसलिए अनुदार हो गई है कि वह हिंसा, असत्य, चोय- अहिंसावाद पर अनास्था के कारण ही आज समाज वृत्ति, काम-लिप्सा और संचय-वृत्ति से आक्रान्त है । अनु- में जातिगत हीनभावना का विस्तार हो रहा है। जाति दारता ही संकीर्ण विचार की जननी है। आज के वक्रजड़ के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उदात्त नहीं रह गया है। लोग दुख्यिा के विष से मूच्छित हैं । आत्म हित के लिए हम इसीलिए, ऊँच-नीच. छआछत आदि के घेरे में बन्दी परहित का प्रत्याख्यान उनका धर्म हो गया है। आस- बनते जा रहे हैं। श्रमण-संस्कृति दुरभिमान को चनौती पड़ोस के जलते हुए घरों के बीच अपने घर को सुरक्षित देती है और सघोष उदघोषणा करती है : 'मत्ती मे समझने का प्रमाद ही उनका आत्मसंस्कार बन गया है। सव्वभएसु ।' परदुःख के विनाश में आत्मसुख को सही न मानकर वे सामाजिक अवधारणा के सन्दर्भ में अपरिग्रहवाद आत्मसुख को परदुःख का कारण बनाना उचित समझते
भी श्रमण-संस्कृति के उदात्त दृष्टिकोण का परिचय प्रस्तुत हैं। श्रमण-संस्कृति इसी अनुदार दृष्टि के निमूलन के करता है। अपरिग्रह का तात्पर्य धन के प्रति स्वामित्व की प्रयास के प्रति सतत् आस्थाशील है ।
भावना का परित्याग है। अनावश्यक संचय से सामान्य श्रमण-संस्कृति अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के लोकजीवन को कष्ट पहुँचता है। घूसखोरी, जमाखोरी, उदात्त दृष्टिकोण की त्रिपुटी पर आधृत है। अनेकान्त की मिलावट,तस्करी आदि का व्यापार परिग्रहका ही जघन्यतम उदार विचारधारा श्रमण-संस्कृति का महाघ अवदान है। रूप है। हम धन से दूसरे की सहायता करते भी हैं, तो अनेकान्त यदि वैचारिक उदात्त दृष्टिकोण का प्रतीक है. स्वामित्व की भावना रखकर ही। स्वामित्व की भावना तो अहिंसा और अपरिग्रह आचारगत उदारता का परि- का त्याग हम नहीं कर पाते। इससे अपरिग्रह का सही चायक । श्रमण-संस्कृति का अहिंसावाद भी सीमित परिधि रूप तिरोहित ही रह जाता है। और फिर, हम संकीर्ण की वस्तु नहीं है। प्राणीवध जैसी द्रव्यहिंसा से भी अधिक भावना से ऊपर नहीं उठ पाते, हमारा वैचारिक दृष्टिकोण व्यापक भावहिंसा पर श्रमण-संस्कृति बल देती है। उसका उदात्त नहीं हो पाता । श्रमण-संस्कृति अपरिग्रह के माध्यम मन्तव्य है कि मूलतः भावहिंसा ही द्रव्यहिंसा का कारण से हमें उदात्त दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे हमारे है । यदि भावहिंसा पर नियन्त्रण हो जाय, तो फिर द्रव्य- अन्तर्मन में सर्वोदय की भावना का संचार होता है और हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठे। आज सामाजिक जीवन में जनमानस ग्रहण की संकीर्ण भावना से त्याग की उदात्त भावहिंसा की प्रधानता से ही द्रव्यहिंसा होती है और यही भूमि की ओर अभिमुख होता है । फिर भयंकर युद्ध और भीषण रक्तपात में परिणत हो श्रमण-संस्कृति का अनेकान्तवाद उसकी उदात्त दृष्टि जाती है।
का एक ऐसा प्रकाश-स्तम्भ है, जिससे सम्पूर्ण विश्व का जाति और धर्म की भावना में संकीर्णता आने पर जीवन-दर्शन आलोकित है। अनेकान्त, जनसमुदाय को हिंसा का उदय स्वाभाविक है। इस स्थिति में पुण्य की दुराग्रहवा दिता की संकीर्ण मनोवृत्ति से मुक्त होने की परिभाषा परोपकार न होकर सामान्य वैयक्तिक पूजा- प्रेरणा देता है। दर्शन के क्षेत्र में या फिर जीवन के पाठ में निःशेष हो जाती है। जात्याभिमान हमें अधःपतन व्यावहारिक जगत में व्याप्त श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ की भावना के की ओर ले जाता है और इससे हम मानवता का निरादर व्यामोह का विलोप अनेकान्त से ही सम्भव है। नीर-क्षीर
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