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________________ चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखे जाने की प्रणाली रुद हो गई है। २ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्य पद के समय, इसी प्रकार 'उपाध्याय', 'वाचनाचार्य' पदों के एवं साध्वियों के 'महत्त।' पद प्रदान के समय भी कभी-कभी नाम परिवर्तन अर्थात् नवीन नामकरण होता था। ३ तपागच्छादि में गुरु-शिष्य का नामान्त पद एक ही देखा जाता है.. पर खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है। गुरु का जो नामान्त पद होगा, वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जाने की एक विशेष परिपाटी है। इसमें शान्तिहर्ष के शिष्य जिनहर्ण गणि का नाम अपवाद रूप में कहा जा सकता है । भिन्न नन्दी प्रथा अर्थात् गुरु के नामान्त पद भिन्न होने वाले मुनि ने अपने ग्रन्थादि में यदि गच्छ का उल्लेख नहीं किया हो तो उसके खरतर गच्छीय होने की विशेष संभावना की जा सकती है। के पृ० २५९ से २६१ में प्रकाशित की है। यह सूची हमें उनके दो विहारपत्रों में संवतानुक्रम से चातुर्मास और विशिष्ट घटनाओं के उल्लेख सहित उपलब्ध हुई थी। दीक्षा समय एक साथ जितने भी मुनियों की दीक्षा हो उन सबका नामान्त पद एक ही रखा जाय यह परिपाटी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इतःपूर्व यह अनिवार्य नहीं रहा होगा । इस महत्त्वपूर्ण प्रथा से उस समय के अधिकांश मुनियों की दीक्षा का अनुक्रम नन्दी अनुक्रम से प्राप्त हो जाने से हमें तत्काकीन विद्वानों व शिष्रों का इस वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादन करने में बड़ी सुविधा हो गई थी जैसे-गुणविनय और समयसुन्दर दोनों समकाल न मूर्धन्य विद्वान थे पर दीक्षा पर्याय में कौन छोटा-बड़ा था यह जानने के लिए नन्दी अनुक्रम का सहारा परम उपयोगी सिद्ध हुआ। इसके अनुसार हम कह सकते हैं कि गुणविनय की दीक्षा प्रथम हुई थी क्योंकि उनकी 'विनय' नन्दी का क्रमाङ्ग ८ वां है और 'सुन्दर' नन्दी का क्रमाङ्क २० वां है। __उपर्युक्त नन्दी प्रथा से आकृष्ट हो कर हमने विकीर्ण पत्रों में, पृष्ठे टिप्पणिका, हर्ष टिप्पणिका आदि में इसकी विशेष शोध की। श्री पूज्यों के दफ्तर तो इसके विशेष आकर हैं। पीछे के दफ्तरों को देखने से पता चलता है कि एक नंदी (नामान्त पर ) एक साथ दीक्षित मुनियों के लिए एक ही बार व्यवहृत न हो कर कई बार दीक्षाएँ दिये जाने पर चलती रहती थी। अर्थात् 'चन्द्र' नन्दी चालू की और उसमें अधिक दीक्षाएं नहीं हुई तो एक दो वर्ष चल सकती है अथवा निधन जैसी दुर्घटना या दीक्षा नाम स्थापन में गुरु-शिष्य के नाम, मुहूर्तराशि आदि प्रतिकूल बैठ जाने से नन्दी बदली जाती थी अन्यथा गच्छ नायक की इच्छा और लामा-लाभ के हिसाब से लम्बे समय भी चल सकती थी। ६-युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी से अब तक तो खरतरगच्छ में एक और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि ४ साध्वियों के नामान्त पद के लिए नं०३ वाली बात न होकर गुरुणी-शिष्या का नामान्त पद एक ही देखा गया है। ५ सब मुनियों की दीक्षा पट्टधर गच्छनायक आचार्य के हाथ से ही होती थी । क्वचित् दूर देश आदि में विराजने आदि विशेष कारण से अन्य आचार्य महाराज, उपाध्यायों आदि विशिष्ट पद स्थित गीतार्थों को आज्ञा देते या वासक्षेप प्रेषण करते तब अन्य भी दीक्षा दे सकते थे। नवदीक्षित मुनियों का नामकरण गच्छनायक आचार्य द्वारा स्थापित नंदी (नामान्तपद) के अनुसार ही होता था। ऊपरिवर्गित चौरासी नन्दियों में सर्वाधिक नन्दियों की स्थापना अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्री जिनचंद्रसरि जी ने की थी। उनके द्वारा स्थापित ४४ नन्दियों की सूची हमने अपने 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूर' ग्रन्थ २३२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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