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सर्वांग पूर्ण इतिहास तेयार हो जाता। यदि किसी भंडार में, बिना सूची के अटाले में सौभाग्यवश मिल जाए तो उसकी पूरी शोध होना आवश्यक है।
पट्टधर आचार्य नामान्त पद जो होगा. सर्वप्रथम वही नंदी स्थापित की जायगी। जैसे जिनचंद्र सूरि जी जब पहले मुनियों को दीक्षा देंगे तो उनका नामान्त पद भो अपने नामान्त पदानुसार 'चन्द्र ' ही रखेंगे। उनके प्रथम शिष्य सकलचंद्र गणि थे। इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले 'सुख' नंदी, जिनलाभसूरि 'लाभ' नंदि: जिनभक्तिसूरि 'भक्ति' नंदी ही सर्वप्रथम रखेंगे। अर्थात् नवदीक्षित मुनियों का नामान्त पद सर्वप्रथम वही रखा जायगा। यह प्रथा श्री जिनहर्ष सूरिजी से लुप्त हो गई क्योंकि उन्होंने प्रथम 'आनंद' नंदी स्थापित की थी।
सं० १७०० से वर्तमान तक का एक दफ्तर जयपुर गद्दी के वर्तमान श्रीपूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी तक का उपलब्ध है जिसमें पुराने दफ्तर का अनेकशः जिक्र है। इसी प्रकार खरतरगच्छ की अन्यान्य शाखाओं के दफ्तर मिल जाए तो कितना उत्तम हो । बीकानेर श्रीपूज्यों की गद्दी का दफ्तर हमने देखा है एवं आचार्य शाखा की कुछ दीक्षा नंदी सूचियां मिली हैं। अन्य सभी शाखाओं की खो गई-नष्ट हो गई है परन्तु इनमें जो दीक्षित यति-मुनियों की नामावली दी है वह इस प्रकार है
श्रीमन्नृपति विक्रमादित्य राज्यात संवत् १७०७ वर्ष शाके १५७२ प्रमिते मासोत्तमे वैशाख मासे शुभे शुक्ल पक्षे तृतीयायां तिथौ श्री मज्जेशलमेरु मध्ये भट्टारक । श्री जिनरत्नसूरिभिलाभ नंदी कृता ।।
पूर्वनाम मोहण केशव
दीक्षा नाम महिमालाम कनकलाम
गुरु नाम उ० राजविजय गणेः पदारंग रौ
मिती मिगसर सुदि १२ जेसलमेरु मध्ये
७----खरतरगच्छ में समाचारी-मर्यादा प्रवर्तक श्री जिनपतिसूरि जी ने दफ्तर-इतिहास या डायरी रखने की बहुत ही सुंदर और उपयोगी परिपाटी चलाई थी। ऐसी दफ्तर वही में जिस संवत् मिती को जिन्हें दीक्षित किया एवं सूरि पद, उपाध्यायादि पद दिए उनकी पूरी नामावली लिख लेते थे। जहाँ-जहाँ विचरते वहाँ की प्रतिष्ठा, संघ-यात्रादि महत्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाओं का उल्लेख उसमें अवश्य किया जाता एवं विशिष्ट श्रावकों के नाम, परिचय, भक्ति, कार्यादि का विवरण लिखा जाता रहा । जैसलमेर भंडार की प्राचीन सूची में ऐसी ३५० पत्रों की प्रति होने का उल्लेख देखा था पर वह अनुपलब्ध है। खरतरगच्छ अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और वे शाखाए' नाम शेष हो गई और सामग्री भी नष्ट हो गई। यदि वे उपलब्ध होती तो खरतरगच्छ का ऐसा सर्वांगपूर्ण व्यवस्थित इतिहास तैयार होता जैसा शायद ही किसी गच्छ का हो। भारतीय इतिहास में ये दफ्तर / इतिहास गुर्वावली आदि अत्यन्त मूल्यवान सामग्री हैं। हमें सर्वप्रथम दफ्तर जिसका नाम युगप्रधानाचार्य गुर्वावली है. सं० १३९३ तक का उपलब्ध हुआ । उसके बाद सं० १७०० से वर्तमान तक का परवर्ती दफ्तर उपलब्ध है । मध्यकालीन जिनभद्रसूरिजी और यु०प्र० जिनचंद्रसूरि जी के समय के दफ्तर मिल जाते तो
श्रीजिताम्
डाहा खेतसी हेमराज वीदौ वस्तौ अमीचंद
दयालाम क्षमालाम हर्षलाभ विजयलाभ विद्यालाभ उदयलाम
सुमतिधर्म रौ
कुशलधीर रौ
मिती फागुण वदी १ मेड़तानगरे भूपति
भक्तिलाभ खेतसी
कुशललाम शांतिलाम
ठाकुरसी
शान्तिहर्ष रौ
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