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________________ पाये जाते हैं। वह सं० १९२५ से १९३७ तक तो निश्चित रूप से कलकत्ता में रहा और उससे बड़े । पंचायती मंदिर में जौहरी रिधुलालजी फोफलिया के पुत्र शिखरचंद जी तीर्थों के बड़े-बड़े मूल्यवान चित्र बनवाये। शत्रुजय. गिरनार, अष्टापद, तारंगा. केशरियाजी, पावापुरी, सम्मेतशिखर, राजगृह, चम्पापुरो, गौड़ीपार्श्वनाथ, राणकपुर, हस्तिनापुर, महावीर समवसरण, नेमिनाथ बारात. मुनिसुव्रतस्वामी आदि के नयनाभिराम चित्र सभामण्डप में लगे हुये हैं। इसी अरसे में राय बद्रीदास कारित शीतलनाथ जिनालय में भी ६०४७० इंच लंवे लगभग ३०-३५ चित्र निर्माण किये जिनमें श्री.पाल चरित्र, सोलह सती, तीर्थंकर चरित्र, दादा गुरुओं के चरित्र, कात्तिक महोत्सवजी की सवारी आदि भावों वाले अत्यन्त सुन्दर और प्रेक्षणीय हैं और जन चित्र शैली की अमूल्य निधि हैं। जियागंज के विमलनाथ जिनालय में दादासाहब के चरित्र से सम्बन्धित सुन्दर और विशल चित्र लगे हुए हैं । प्राचीन हैं । इन पर अष्टमंगलोक, चौदह स्वप्न, त्रिशला माता. दशाणभद्र का प्रभु वन्दनार्थ गमन, इलापुत्र की नट विद्या. नेमिनाथ भगवान की बरात, तीर्थंकरों के समवसरण, हाथी. सिंह, सरस्वती आदि विभिन्न प्रकार के सुन्दर चित्र चित्रित हैं । इनमें स्वर्णाभ रंग का भी प्रयोग होता था । हमारे संग्रह में जहांगीरकालीन वेश-भूषा का एक महत्त्वपूर्ण पूठा है एवं चमड़े के हाथी लगे हुए चित्र को पटड़ी हैं । एक पूठे पर हाथी दाँत की चीपियाँ लगी हुई हैं । गट्टजी आदि-पीतल, काष्ठ, चांदी के ढक्कनदार गोल डिव्वे को गट्टाजी कहते हैं। इनमें तीर्थकर पार्श्व: नाथ, नवपदजी. बीस स्थानकजी, चौबीसी आदि के सुन्दर कलापूर्ण चित्र मढ़े रहते हैं । इन चित्रों पर सोने के वर्क का मनौती काम व सच्चे मोती के हार आदि चिपकाये रहते हैं। इनमें लाल, नीला, हरा, श्वेत, स्वर्णाभ, पीत आदि सभी रंगों का प्रयोग हुआ है। पीतल के किवाड़ीदार देवालयों में भी चित्र मढ़े हुये पाये जाते हैं। पूठे-पटड़ी जिस प्रकार ताडपत्रीय ग्रन्थों के लिये काष्ठफलक होते थे उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों के लिये पृठे. पटडी-फाटिये आदि गत्ते कूटे-कागज को चिपका कर मजबूत किए हुए हुअा करते हैं । रद्दी कागजों को चिपका कर बनाये हुए एक पूठे के खुल जाने पर हमने लगभग ८०० वर्ष पूर्व का श्री जिनपतिसूरिजी के समय का पालनपुर का साध्वीमण्डल का पत्र प्राप्त किया था। इन पुठों पर मखमल. साटण, जरी, कीमखाब आदि वस्त्र मढ़े हुए तथा जरी, कलाबत्तू . कारचोवो और रेशम द्वारा अष्टमङ्गल, चौदह स्वप्न, तीर्थकर माता, इन्द्रादि देव बनाये जाते रहे हैं । कई पूठों पर कांच पर किये चित्र भी मढ़े हुये मिलते हैं । इनके अतिरिक्त पूठे पर वानिश करके जो चित्र बनाये हुए मिलते हैं वे लगभग दो सौ से चार सौ वर्ष जितने चौबीसी व अनानुपूर्वी-आजकल जिस प्रकार मुद्रित चौबीसियाँ आती हैं उसी प्रकार आगे हाथ के चित्रों वाली प्रचा परिमाण में बनायी जाती थी। कई चौवीसियाँ साधारण, कई मध्यम और कई असाधारण कला-सौष्ठव युक्त चित्रित होती थी। हमारे संग्रह की दो एक चौबीसियाँ अत्यन्त सुन्दर और कलापूर्ण हैं। इनमें जिनालय का पूरा चित्र, प्राकृतिक दृश्य व इन्द्र-इन्द्राणी आदि दिखाये गए हैं। तीर्थंकरों के वर्ण व लांछन के अनुसार चौबीस जिन चित्र निर्माण होते हैं। उनमें दादासाहब की चरण/मूत्ति, गौतम स्वामी आदि के चित्र, पद्मावती, भैरव आदि स्वेच्छानुसार वनवाकर तैयार होने लगे। जिनालयों व जिनेश्वरों व पंच कल्याणक के स्वतन्त्र चित्र भी पाये जाते हैं। भावचित्र-शास्त्र विहित औपदेशिक भावों के चित्र [ १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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