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________________ निर्माण की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराने ज्ञानभण्डारों में मधुविन्दु, छः लेश्या, ज्ञानबाजी (चौपड़), लोकनाल, मेरुपर्वत, जन्माभिषेक, जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्षादि पर जिन प्रतिमाएँ और श्रावकों द्वारा दर्शन-पूजनयुक्त तथा स्नात्रपूजादि की भाव चित्रावली दिल्लो आदि अनेक स्थानों के मन्दिरों में मढ़ी हुई व अन्य भी अनेक विधाएं संप्राप्त हैं। भारण्ड पक्षी, आकाश पुष्प, एक मस्तक अनेक देह आदि की इतनी चित्र सामग्री प्राप्त है जिसे पूर्ण रूप से व्यक्त करना कठिन है । संग्रहणी में जिस प्रकार स्वर्ग नरक आदि के चित्र हैं वैसे स्वतन्त्र रूप में भी चित्र बनाये गए । नारकी के चित्र जिनमें परमाधामी देव विविध प्रकार से कष्ट देते हैं और किस कर्म के परिणाम में क्या-क्या विपाक उदय में आया इसके उभय पक्ष के चित्र भी जैन चित्रकला में प्रचुरता से पाये जाते हैं। हमारे संग्रह में, पीपाड़ के जयमलजी भंडार व बीकानेर की सेठिया लायब्ररी व जयपुर के विनयचंद ज्ञानभंडार में हैं। पीपाड़ का ज्ञानभंडार कला की दृष्टि से समृद्ध है जिसका उल्लेख आगे किया गया है । स्थानकवासियों में से दो सौ वर्ष पूर्व तेरापंथी निकले उनमें यति परम्परागत चली आई चित्रकला प्रचलित थी । यद्यपि वे भी मूत्ति को अमान्य रखते थे, फिर भी चित्रकला के क्षेत्र में पश्चातूपद नहीं थे। नरक-स्वर्ग आदि के परम्परागत लोकचित्रों के माध्यम से वे जनता को दुष्कृत्यों से बचने का उपदेश देते रहे हैं। पूज्य जयाचार्य के पश्चात् माधवागणि और डालगणि के समय में चित्रकला कुछ उन्नत हुई और भावचित्रों की कई विधाएं निर्मित हुई । एक कागज के मध्य में बने हुये चित्र पर किनारों को मोड़ कर उस पर बने चित्रों से विविध आकृ. तियाँ उभारी जाती हैं और आत्मा के विभिन्न योनियों में परिभ्रमण/रूपधारण की बातें बतायी जाती है। एक बड़े मुर्गे के अन्तर्गत कई रूप हो जाने की दूसरी विधा भी चल निकली । भाव चित्रों में मधुबिन्दु व षट-लेश्या तो थे ही और नये उन्मेष हुये । कमल भ्रमर के चित्र में रसलुब्ध भ्रमर का सूर्यास्त के समय कमल में बन्द हो जाने के भाव चित्र बने । घड़े के पैदे में तल भग्न, मध्य भग्न व गलबे से भग्न के माध्यम से श्रोताओं की तीन श्रेणियाँ बताई गई। हरे व सूखे वृक्ष में सूखे वृक्ष के पक्षी उसे त्यागकर हरे वृक्ष पर जा कर निवास करने लगे। कवीर की उक्ति प्रसिद्ध है ऐतिहासिक व्यक्ति चित्र-जिसप्रकार ताडपत्रीय ग्रंथों, काष्ठफलकों आदि में जैनाचार्यों व श्रावकों के मूल्यवान चित्र संप्राप्त हैं यतः हेमचन्द्राचार्य, वादि देवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तमूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयतिलक, कुमारपाल, यादव कुमारपाल. विमलचन्द श्रावक आदि उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों में जिनभद्रसूरि, जयसागरोपा. ध्याय, जिनराजसूरि प्रथम व द्वितीय, जिनरंगसूरि आदि, आचार्यों के चित्र उपलब्ध हैं । ऐतिहासिक व्यक्तियों के स्वतन्त्र चित्र भी पाए जाते हैं। यतः मुनियों में जिनभक्तिसर, जिनसुखसूरि, जिनलाभसूरि, जिनचन्द्रसूरि. जिनहर्षसूरि, जिनसौभाग्यसूरि, जिनमहेन्द्रसूरि, जिनमुक्तिसूरि आदि, आचार्यों में क्षमाकल्याणोपाध्याय, ज्ञानसार, जयकीर्ति आदि, श्रावकों में शांतिदास सेठ, कर्मचन्द्रमंत्री, अमरचंद सुराणा, भानाजी भण्डारी, मोतीशाह सेठ आदि । हरे गाछ पर पंछी बैठा लेता नाम हरी । झड़ गये पत्ते उड़ गए पंछी ये ही रीत बुरी ।। अब मोहे जान पड़ी । लौंकागच्छ में से स्थानकवासी परम्परा लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व निकली । जिसके बनवाये हुये चित्र में साधुओं के मुखवस्त्रिका बंधी हुई है। ऐसे चित्र कुछ भाव चित्रों में उत्तराध्ययन आदि के शास्त्रीय भावों का व्यक्तिकरण हुआ । तेरापंथ में गत सौ वर्षों में व्यक्ति चित्र भी बनने लगे। माधवागणि-डालगणि के संयुक्त और स्वतन्त्र चित्रों की उपलब्धि इसके साक्ष्य १४६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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