________________
हो वह अपलक्षणी और कूट लेखक बतलाया गया है।
लेखक की साधन सामग्री:
अक्षर लिखते छोड़ कर या अलग कागज पर लिख के उटते थे। अवशिष्ट अक्षर लिखते हुए उठ जाने पर उन्हें पुस्तक के कट जाने, जन्तु द्वारा खा जाने तथा नष्ट हो जाने के विविध संदेह रहते थे। इन विश्वासों का वास्तविकता से क्या सम्बन्ध है कहा नहीं जा सकता।
लेखक की निषिता:
जिस प्रकार ग्रन्थकार अपनी रचना में हुई स्खलना के लिए क्षमाप्रार्थी बनता है वैसे ही लेखक अपनी परिस्थिति और निष्तिा प्रकट करने वाले श्लोक लिखता है
ग्रन्थ लेखन के हेतु पीतल के कलमदान और एक विशिष्ट प्रकार के लकड़ी या कूटे के कलमदानों में लेखन सामग्री का संग्रह रहता था। हमारे संग्रह में ऐसा एक सचित्र कूटे का कलमदान है जिस पर दक्षिणी शैली से सुन्दर कृष्णलीला का चित्रांकन किया हुआ है। एक सादे कलमदान | में पुरानी लेखन सामग्री का भी संग्रह है। यह लेखन सामग्री विविध प्रकार की होती थी जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। एक श्लोक में 'क' अक्षर वाली१७ वस्तुओं की सूची उल्लिखित है
(१) कुंपी ( दावात ). (२) काजल (स्याही). (३) केश (सिर के वाल या रेशम), (8) कुश-दर्भ, (५) कम्:ल. (६) कांबी. (७) कलम. (८) कृपाणिका (छुरी), (९) कतरनी (कैंची), (१०) काष्ठपट्टिका, (११) कागज. (१२) कीकी
आंखे. (१३) कोटड़ी (कमरा). (१४) कलमदान, (१५) क्रमण-पैर, (१६) कटि-कमर और (१७) कंकड़।
इनमें आँख, पैर और कमर की मजबूती आवश्यक है। बैठने के लिए कंबल-दर्भासन व कोठरी-कमरा के अतिरिक्त अवशिष्ट स्टेशनरी लेखन सामग्री है।
लहिये लोग विविध प्रकार के आसनों में व विविध प्रकार से कलम पकड़ कर या प्रतियाँ रख कर लिखने के अभ्यस्त होने से अपने लेखनानुकूल कलम को अपर व्यक्ति को देने में हानि समझते थे। अतः पुस्तकों की पुष्पिका के साथ निम्न सुभाषित लिख दिया करते थेलेखनी पुस्तिका रामा परहस्ते गता गता। कदाचित् पुनरायाता नष्टा भ्रष्टा च धर्मिता (या चुम्बिता) ॥
यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो 'न दीयते ।। भग्नपृष्ठ - कटिग्रीवा • वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ बद्धमुष्टि • कटिग्रीवा - वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥ इत्यादि ।
भ्रांतिमूलक अशुद्धियां:
. प्राचीन प्रतियों की नकल करते समय लिपि अल्पज्ञता से या भ्रांत पठन से, अक्षराकृति साम्य या संयुक्ताक्षरों की दुरूहता से अनेकशः अशुद्ध परम्परा चल पड़ती थी। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, मिलते-जुलते अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध करने पर नवीन पाठान्तरों की सृष्टि हो जाती, जिसका संशोधन किसी अनुभवी विद्वान् संशोधक के हाथों पड़ने पर ही संभव होता । 'च्छ' का 'त्थ' और 'त्थ" का 'च्छ' हो जाना तो मामूली बात थी।
ग्रन्थ लेखनारंभ
लेखन विराम:
लिखते समय यदि छोड़ कर उठना पड़े तो वे अपने विश्वास के अनुसार 'घ झ ट ड त प ब ल व श'
भारतीय संस्कृति में न केवल ग्रन्थ रचना में ही किन्तु ग्रन्थ लेखन के समय लहिये लोग सर्वप्रथम मंगलाचरण करते थे. यह चिरपरिपाटी है । जैन लेखक "ॐ नमः, ऐं नमः, नमो जिनाय, नमः श्री गुरुभ्यः, नमो
[ ९१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org