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लिखी जाने लगीं । पृष्ठि मात्रा, अपमात्रा, ऊर्ध्वमात्रा में 'उ, ऊ' की अग्रमात्रा 'रु.रू' के अतिरिक्त अधोमात्रा का रूप धारण कर लिया । पृष्ठि मात्रा में ह्रस्व इकारान्त संकेत के अतिरिक्त ऊर्ध्व और अग्रमात्रा बन गई है, जैसे के, के, को, कौ । जबकि प्राचीन काल में बंगला लिपि की भाँति कि, के, का, को लिखे जाते थे, दीर्घ ईकार का संकेत अपरिवर्तित ही रहा । संयुक्ताक्षर एवं मात्राओं के प्रयोग के कारण अक्षरों के माप में अन्तर आ जाना स्वाभाविक था अस्तु, पड़ी मात्रा लिखने की पद्धति प्रायः सतरहवीं शताब्दी के पश्चात् लुप्त हो गई । जैन लेखक :
जैन साहित्य के परिशीलन से विदित होता है कि जैन विद्वानों-श्रुतधरों ने जो विशाल साहित्य-रचना की उन्हें वे पहले काष्ठपट्टिका पर लिख कर फिर ताड़पत्र, कागज आदि पर उतारते थे। श्री देवभद्राचार्य ने जिस काष्ठोत्कीर्ग पट्टिका पर महावीर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्रादि लिखे थे वे उन्होंने सोमचन्द्र मुनि ( श्रीजिनदत्तसूरिजी) को भेंट किये थे । अतः इन वस्तुओं का बड़ा महत्व था । ग्रन्थकार अपने महान ग्रन्थों को स्वयं लिखते या अपने आज्ञांकित शिष्य वर्ग से प्रथमादर्श पुस्तिका लिखवाते. जिनका उल्लेख कितने ही ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पाया जाता है। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, स्थिरचन्द्र, ब्रह्मदत्त आदि की लिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध हैं। श्री जिनमद्रसूरि, कमलसंयमोपाध्याय, युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दरोपाध्याय, गुणविनयोपाध्याय, यशोविजय उपाध्याय. विनयविजय, नयविजय, कीर्तिविजय, जिनहर्षगणि, क्षमाकल्याणोपाध्याय, ज्ञानसार गणि आदि बहुसंख्यक विद्वानों के स्वयं हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं | जैन यति-मुनियों, साध्वियों आदि के अतिरिक्त श्रीमन्त श्रावकों द्वारा लहिया लोगों से लिखवाई हुई बहुत-सी प्रतियां हैं । इस प्रकार जैन ज्ञानभण्डारों में लाखों प्राचीन ग्रन्थ आज भी विद्यमान हैं। पुस्तकों
के लिपिक लहिए कायस्थ, ब्राह्मण, नागर, महात्मा, भोजक आदि जाति के होते थे, जिनका पेशा ही लिखने का था और उन सैकड़ों परिवारों की आजीविका जैनाचार्यों व जैन श्रीमन्तों के आश्रय से चलती थी। वे जैन लिपि व लेखन पद्धति के परम्परागत अभिज्ञ थे और जैन लहिया-जैन लेखक कहलाने में अपना गौरव समझते थे। महाराजा श्रीहर्ष, सिद्धराज जयसिंह, राजा भोज. महारागा कुम्भा आदि विद्याविलासी नरेश्वरों को छोड़ कर एक जैन जाति ही ऐसी थी जिसके एक-एक व्यक्ति ने ज्ञान भण्डारों के लिये लाखों रुपये लगा कर अद्वितीय ज्ञानोपासना-श्रुतभक्ति की है। लाखों ग्रन्थों के नष्ट हो जाने व विदेश चले जाने पर भी आज जो ग्रन्थ-भण्डार जैनों के पास हैं वे बड़े गौरव की वस्तु हैं। ज्ञानपंचमी का आराधन एवं सात क्षेत्रों में तथा स्वतन्त्र ज्ञान द्रव्य की मान्यता से इस ओर पर्याप्त ज्ञान सेवा समृद्ध हुई। साधु-यतिजनों को स्वाध्याय करना अनिवार्य है । श्रुत लेखन स्वाध्याय है और इसीलिये इतने "ग्रन्थ मिलते हैं । आज के मुद्रण युग में भी सुन्दर लिपि में ग्रन्थ लिखवाकर रखने की परिपाटी कितने ही जैनाचार्य मुनिगण निभाते आ रहे हैं । तेरापन्थी श्रमणों में आज भी लेखन कला उन्नत देखी जाती है क्योंकि उनमें हस्त लिखित ग्रन्थ लिखने और वर्ष में अमुक-परिमाण में लेखन-स्वाध्याय की पूर्ति करना अनिवार्य है ।
लेखक के गुण-दोष :
लेख पद्धति के अनुसार लेखक सुन्दर अक्षर लिखने वाला, अनेक लिपियों का अभिज्ञ, शास्त्रज्ञ और सर्वभाषा विशारद होना चाहिए, ताकि वह ग्रन्थ को शुद्ध अविकल लिख सके । मेधावी, वाकपटु, धैर्यवान्-जितेन्द्रिय, अव्यसनी. स्वपरशास्त्रज्ञ और हल्के हाथ से लिखने वाला सुलेखक है ! जो लेखक स्याही गिरा देता हो. लेखनी तोड़ देता हो, आसपास की जमीन विगाड़ता हो, दावात में कलम डबोते समय उसकी नोक तोड़ देता
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