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(१) सफेदा ४ टांक व पेवड़ी १ टांक व सिंदूर || टांक से गौर वर्ण। (२) सिंदूर 8 टांक व पोथी गली? टांक से खारिक रंग। (३) हरताल १ टांक व गली आधा टांक से नीला रंग। (४) सफेदा १ टांक व अलता आधा टांक से गुलाबी रंग। (५) सफेदा १ टांक व गली १ टांक से आसमानी रंग। (६) सिंदूर १ टांक व पेवड़ी आधा टांक से नारंगी रंग होता है।
हस्तलिखित ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए इन रंगों के साथ गोंद का स्वच्छ जल मिलाया जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्रकला के योग्य रंगों के निर्माण की विधि के पचासों प्रयोग पुराने पत्रों में लिखे पाये जाते हैं।
जैन लिपि की परम्परा
भगवान् महावीर का विहार अधिकांश बिहार प्रान्त ( अंग-मगध-विदेह आदि ), बंगाल और उत्तर प्रदेश में हुआ था । अतः वे अर्द्धमागधी भाषा में उपदेश देते थे। जैनों का सम्बन्ध मगध से अधिक था । जैनागमों की भाषा प्राकृत है. दिगम्बर साहित्य सौरसेनी प्राकृत में और श्वेताम्बर आगम महाराष्ट्री प्राकृत में हैं। जिस प्रकार प्राकृत से अपभ्रश के माध्यम से हिन्दी, राजस्थानी. गुजराती आदि अन्य भाषाएं हुई. उसी प्रकार बंगला भाषा
और लिपि का उद्गम भी प्राकृत से हुआ है । मगध से पड़ी मात्रा का प्रयोग बंगला में गया। जब बारह वर्षी दुष्काल पड़े तो जैन श्रमण संघ दक्षिण और पश्चिम देशों में चला गया. परन्तु अपनी लिपि ब्राह्मी से गुप्त, कुटिल और देवनागरी के विकास में ब्राह्मी-देवनागरी में ब्राह्मी-बंगला का प्रभाव लेता गया। यही कारण है कि सैकड़ों वर्षों तक पड़ी मात्रा का जैनों में प्रचलन रहा। बंगला लिपि में आज भी पड़ी मात्रा है। अतः प्राचीन जैन लिपि के अभ्यासी के लिए बंगला लिपि का ज्ञान बड़ा सहायक है।
जिसप्रकार ब्राह्मी-देवनागरी लिपि में जलवायुदेशपद्धति और शिक्षक द्वारा प्रस्तुत अक्षर जमाने के उपकरणों की लिपि विविधता, रुचि-भिन्नता के अन्यान्य मरोड़ के कारण अनेक रूपों में प्रान्तीय लिपियां विभक्त हो गयीं, उसी प्रकार जैन लिपि में भी यतियों की लिपि, खरतरगच्छीय लिपि, मारवाड़ी लहियों की लिपि, गुजराती लहियों की लिपि-परम्परा पायी जाती है । कोई गोल अक्षर, कोई खड़े अक्षर, कोई बैठे अक्षर, कोई हलन्त की भाँति पूंछ वाले अक्षर, तो कई कलात्मक अलंकृताक्षर, कोई टुकड़े-टुकड़े रूप में लिखे व कोई घसीटवें अक्षर , लिखने के अभ्यस्त थे। एक ही शताब्दी के लिखे ब्राह्मण. कायस्थादि की लिपि में तो जैन लिपि से महद अन्तर है ही, जैन लिपि में भी लेखनकाल निर्णय करने में बहुत सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। लेखन सौष्ठव:
सीधी लकीर में सघन गोल, एक दूसरे से अलग्न, शीर्ष मात्रादि अखण्ड एक जैसे, न खाली, न भीड़-भाड़ वाले अक्षर लिखने वाले लेखक भी आदर्श और उनकी लिपि भी आदर्श कहलाती है। जैन शैली में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है जिससे पिछली शताब्दियों में क्रमशः लेखनकला विकसित होती गई थी।
लिपि का माप-काटिये द्वारा यथेच्छ एक माप की पंक्तियों में लगभग तृतीयांश या इससे कम-बेश अंतर रख कर एक समान सुन्दर अक्षरों से प्रतियां लिखी जाती थीं जिससे अक्षर गणना करने वाले को सुविधा रहती और अक्षर भी सरल, सुवाच्य और नयनाभिराम लगते थे।
पड़ी मात्रा-ब्राह्मी लिपि से जब वर्तमान लिपियों का विकास हुआ, मात्राएँ सूक्ष्म रूप में अथवा स्वर संलग्न संकेत से लिखी जाती थीं। वे अपना बडा रूप धारण करने लगी और वर्तमान में अक्षर व्यंजन के चतुदिक
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