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________________ लेखकों द्वारा अंक प्रयोग : वीतरागाय, जयत्यनेकान्तकण्ठीरवः, ॐ नमः सरस्वत्यै, ॐ नमः सर्वज्ञाय, नमः श्रीसिद्धार्थसुताय" इत्यादि अपने देव, गुरु, धर्म, इष्टदेव के नाम मंगल के निमित्त लिखते थे । जैन मंगलाचरण का सार्वत्रिक प्रचार न केवल भारत में ही बल्कि, चीन, तिब्वत तक में लिखे ग्रन्थों में कातन्त्र व्याकरण का 'ॐ नमः सिद्ध' प्रचुरता से प्रचलित हुआ था। प्राचीन लिपियों के प्रारंभिक मंगल-चिन्ह शिलालेखों में, ताडपत्रीय ग्रन्थों में व परम्परा से चलते हुए अर्थन समझने पर भी रूढ़ हो गये थे । ब्राह्मी लिपि के ॐकार, ऐ कार सहस्राब्दी पर्यन्त चलते रहे और आज भी ग्रन्थ लेखन के प्रारम्भ में उन्हीं विविध रूपों को लिखने की परम्परा चल रही है । भारतीय प्राचीन लिपि माला एवं प्राचीन शिलालेखों व ग्रन्थों से उन मंगलचिन्हों का विकास चारुतया परिलक्षित होता है. | राजस्थान में सर्वत्र कातन्त्र व्याकरण का प्रथम अपभ्रष्ट पाठ वड़े ही मनोरंजक रूप में बच्चों को रटाया जाता था । यद्यपि ग्रन्थ की पत्र संख्या आदि लिखने के लिये अंकों का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है पर, साथ-साथ रोमन लिपि की भाँति, I II III IV.V आदि सांकेतिक अंक प्रणाली भी नागरी लिपि में प्रचलित थी,' जिसके संकेत अपने ढंग के अलग थे। ताडपत्रीय ग्रन्थों में और उसके पश्चात् कागज के ग्रन्थों में भी इसका उपयोग किये जाने की प्रथा थी । पत्र के दाहिनी ओर अक्षरात्मक अंक संकेत व वायीं तरफ अंक लिखे रहते थे। यह पद्धति जैन छेद आगमों. चणियों में एक जैसे पाठों में प्रायश्चित्त व मांगों के लिये भी प्रयुक्त हुई है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत जीतकल्पसूत्र के भाष्य में सूत्र की मूल गाथाओं के अंक अक्षरात्मक अंकों में दिये हैं । इस पद्धति के ज्ञान बिना मूल प्रति की नकल करने वालों द्वारा भयंकर भूल हो जाने की संभावना है । इस प्रथा का एक दूसरा रूप नेवारी ग्रन्थों में देखा गया है । वात यह है कि श्री मोतीचन्दजी खजान्ची के संग्रह की एक प्रति को जब १९०० वर्ष प्राचीन वताया गया तो असंभव होते हुये भी मैंने स्वयं उसे देखना चाहा । प्रति देखने पर राज खुला कि संवत् वाला अंक १ बंगला लिपि का ७ था जो कि पत्रांकों का पर दी हुई उभयपक्ष की संख्या से समर्थित हो गया । इस प्रकार ६०० वर्ष का अन्तर निकल गया और नेवारी संवत् व विक्रम संवत का अंक निकालने पर उसकी यथार्थ मिति पतला कर भ्रांति मिटा दी गई । अस्तु । हमें जैन लेखकों द्वारा अक्षरात्मक अंक संकेतों का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसकी तालिका जान लेना आवश्यक समझ कर यहाँ दी जा रही है सा . लेखकों की ग्रन्थ लेखन समाप्ति : ग्रन्थ लेखन समाप्त होने पर ग्रन्थ की परिसमाप्ति सूचन करने के पश्चात् लेखक संवत् पुष्पिका लिख । कर "शुभंभवतु. कल्याणमस्तु, मंगलं महाश्री लेखकः पाठकयोः शुभंभवतु, शुभं भवतु संघस्य," आदि वाक्य लिख कर “छः।।" ब|| आकृतियाँ लिखा करते थे जो पूर्णकुम्भ जैसे संकेत होने का मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अनुमान किया है । और भी प्राचीन ग्रन्थों में विभिन्न चिन्ह और अक्षरों पर गेरु आदि लाल रंग से रंजित ग्रन्थों के अन्तिम पत्र पाये जाते हैं। ग्रन्थ के अध्ययन, खण्ड, उद्देश्य. सर्ग, परिच्छेद, उच्छवास, लभक, काण्ड आदि की परिसमाप्ति पर सहज ध्यान आकृष्ट करने हेतु भी इन चिन्हों का उपयोग किया जाता था। ९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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