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________________ 'श्रीताल' के पत्रों पर चित्रित लिखित होने से वे सुन्दर और टिकाऊ होते हैं। यों तो दक्षिण भारत व उड़ीला में आज भी ताडपत्रीय ग्रंथ लिखे जाते हैं, पर वे लौह लेखनी से उत्कीणित होते हैं । उन पर बने चित्र भी वैसे ही उत्कीर्णित एवं रेखा चित्र व रंगीन चित्र भी मिलते हैं । जेन ताड़पत्रीय ग्रन्थ लेखन चित्रण आज नहीं किये जाते, अतः जो भी है पांचसौ से हजार वर्ष प्राचीन है। पोल-अहमदाबाद के श्रावकधर्म प्रकरण सवृत्ति की एक सुन्दर ताड़पत्रीय प्रति के अत्यन्त सुन्दर चित्र देखे जो शांतिनाथ भगवान के चरित्र के १२ भवों से सम्बन्धित हैं । इसमें जालोर में श्रीजिनेश्वर सूरि प्रतिष्ठित श्री शांतिनाथ जिनालय निर्माताओं के चित्र विद्यमान हैं। यद्यपि काल दोष से अब वह जिनालय तो नहीं रहा किन्तु उसके निर्शताओं की स्मृतिशेष उपर्युक्त सुन्दर ताडपत्रीय चित्रों में आज भी विद्यमान है। उभय काष्ठपट्टिकाओं में दोनों ओर चार लंबी चित्रमाला है। ये ८३ सें० मी० लम्बी व ६ सें० मी० चौड़ी हैं । मुनिश्री इस चित्र समृद्धि का अध्ययन प्रस्तुत करने वाले हैं। हमारे कलाभवन में तो मात्र एक ही ताडपत्रीय चित्र का नमूना है । कागज के सचित्र ग्रन्थ--- जेसलमेर ज्ञानभण्डार के कल्पसूत्र की ताडपत्रीय प्रति में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन-प्रसंग के बीस चित्र हैं। दशवकालिक आदि कई प्रतियों में हाथी, कमल, श्री. देव आदि के चित्र हैं । क्रमांक ११८ में महावीर स्वामी एवं प्रवचनकर्ता आचार्य महोदय एवं श्रोताओं के चित्र हैं। क्रमांक १५९ में सं० १३४५ के पाश्वनाथ, समवसरण, अजितनाथ, शान्तिनाथ और जिनालय के चित्र हैं। इनमें स्वर्णमय स्याही भी प्रयुक्त हुई है। क्रमांक १८६ में भी चौदहवीं शतो के सरस्वती व श्रावक-श्राविकाओं के आठ सुन्दर चित्र हैं। क्रमाङ्क २०६ में सं० १२९५ के भगवान महावीर, देवी और आचार्य महाराज के तीन सुन्दर चित्र हैं । क्रमाङ्क २२८ में सपरिकर शान्तिनाथ, नं० २४४ में भ० नेमिनाथ एवं आचार्य महाराज के चित्र हैं। नं० २५७ में दो भुजा वाली खड़ी हुई सरस्वती व वैरोट्या देवी का चित्र है । क्रमाङ्क २६३ में सिद्धायिका, आचार्य महाराज, श्रावकश्राविका व पूर्णकलश का चित्र है । क्रमाङ्क २९६ में खड़ी हुई सरस्वती का सुन्दर चित्र है। क्रमाङ्क ३३५ में भ० पार्श्वनाथ, आचार्य हेमचन्द्र, अभयतिलकगणि, जिनेश्वरसरि व शाह विमलचंद्र के चित्र हैं। चौदहवीं शताब्दी के पश्चात् प्रायः ताडपत्रीय ग्रन्थों का लेखन बंद हो गया और ग्रन्थादि लेखन बढ़या और टिकाऊ कागजों पर होने लगा। यद्यपि लेखन शैली ताड़पत्रीय ग्रंथों की ही चलती रही. बीमें छेदकर डोरा पिरोने व संख्या के अंक भी उसी शैली के एकतरफ संकेत लिपि में लिखे जाते थे, पर कागजों पर विकास का क्षेत्र प्रशस्त हो गया। ताड़पत्रीय ग्रंथों में चौड़ाई अधिक न होने से चित्रकला का अधिक विकास नहीं हो सका था, पर कागज का प्रचलन होने से उस पर लिखे जाने वाले ग्रन्थ क्रमशः दुगुने तिगुने चौड़े हो गए। उनमें चित्रकला का आश्चर्यजनक विकास हुआ। केवल कल्पसूत्र और कालकाचार्यकथा की सेकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों प्रतियाँ लिखाई गई। श्रावकों ने स्वर्णाक्षरी. रौप्याक्षरी. गंगा-जमनी और सचित्र प्रतियों के लिखवाने में करोड़ों रुपये व्यय किए। एक-एक प्रति में पच्चीस - तीस से लेकर सैकड़ों मूल्यवान चित्र बने। बेलपत्तियों व हाँसिये के चित्रों में गज पंक्ति, हंस पंक्ति इत्यादि विविधताओं का बड़ा विकास हुआ । स्वर्ण, रजत एवं अन्य रंगों की विविधता द्वारा जैनकला शैली में आश्चर्य पाटण व खंभात के ज्ञान भण्डारों में भी सचित्र ताडपत्रीय ग्रन्थ है। श्रीजिनेश्वरसूरि द्वितीय का सुन्दर चित्र हमने ४५ वर्ष पूर्व प्राप्त कर ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित किया था। मुनिराज श्री शीलचन्द्र विजय के पास श्री विजय नेमिसूरि ज्ञान मन्दिर, पांजरा. [ १४१ १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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