________________
की हैं। दोनों प्रतियाँ नाहर जी के संग्रह में हैं। हमारे संग्रह में त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अंतिम पत्रों में आचार्य श्री जिनराजसूरिजी और सामने बाजोट पर उपाध्याय जयसागरजी बैठे हुए मालूम देते हैं । प्रशस्ति के अनुसार ये जयसागरोपाध्याय जी के ६भ्राता। पाल्हा, झोटा, मंडलिक, माल्हा, महीपति में से चार हैं। दूसरे कक्ष में साध्वियों के समक्ष इनकी धर्मपत्नियाँ भी हैं। ये आतीर्थ स्थित खरतरवसही के निर्माता दरड़ा गोत्रीय श्रावक थे । ये चित्र हरिद्रारंग की पृष्ठभूमि में चित्रित हैं।
जनक निखार आया जिससे उसके समक्ष सारे चित्र श्रीहीन-फीके पड़ गए। देवसापाड़े के सुप्रसिद्ध कल्पसूत्र के एक-एक पन्ने का मूल्य आज दस-दस हजार से कम नहीं आंका जाता। इसके चित्र इतने समृद्ध हैं कि समूचा पन्ना चित्रों से परिपूर्ण है। ग्रन्थ के तो मात्र एक दो प्रत ही लिखे गये हैं । इसके हाँसिये में संगीत, नृत्य आदि के विविध दृश्य भी बड़े आकर्षक और सुन्दर ढंग से चित्रित किये गए हैं। अहमदाबाद के खरतरगच्छीय भण्डार के सोलहवीं शती के कल्पसूत्र में ३५ चित्र हैं पर दूसरी प्रति में बीसवीं शती के लगभग ६५ सुनहरे चित्र बने हुये हैं। क्षमाकल्याणजी के भण्डार बीकानेर के चित्रों की कला शैली बीकानेरी कलम से संबंधित है । श्री पूरणचन्द जी नाहर, कलकत्ता के संग्रह में कल्पसूत्र की कई प्रतियाँ हैं जिनमें सं०१५११ की लिखित में ४६ चित्र. सोलहवीं शती की लिखित में ४३ चित्र, सत्रहवीं शती के कल्पसूत्र में अपूर्ण चित्र, एक रजत चित्रमय तथा एक उन्नीसवीं शती की प्रति में ३४ सुन्दर सुनहरे चित्र राजपूत कलम के हैं। सं० १५५३ के पत्र ११३ में सन्देहविषौषधि टीका सह ७१ चित्र सुनहरे हैं । सं०१८४५ के लिखे कल्पसूत्र में ३३ चित्र हैं। कालिकाचार्य कथा की कई सचित्र प्रतियाँ नाहरजी के संग्रह व हमारे संग्रह में एवं विभिन्न ज्ञानभण्डारों में प्रचर परिमाण में पायी जाती हैं । नाहर जी के संग्रह की स्वर्गाक्षरों ९ पत्र की प्रति में ६ चित्र और बोर्डर में विभिन्न वेलपत्तियाँ, साध-साध्वी, स्त्रियाँ और मस्तक पर भार ढोते हुए हबशी लोगों के भी सुन्दर चित्र हैं।
इनके अतिरिक्त उत्तराध्ययन सूत्र,ज्ञाता सूत्र, सुपार्श्वनाथ चरित्र आदि ग्रन्थों में भी अपभ्रंश शैली के सुन्दर चित्र किये हुए मिलते हैं। यह जैनों की विशिष्ट शैली थी जब कि इस शैली में चित्रित बालगोपाल स्तुति व वात्स्यायन शास्त्र की भी प्रतियाँ क्वचित् दृष्टिगोचर होती हैं। श्री साराभाई मणिलाल नवाब आदि ने जैन चित्रों को प्रकाश में लाने का स्तुत्य प्रयास किया है पर सर्वांगीण शोध होने की अब भी आवश्यकता है। सोलहवीं शती में यह अपभ्रश चित्र शैली अपनी उन्नति के शिखर पर थी। जौनपुर भी मुगलकाल तक जैनों का केन्द्र था । वहाँ की शैली के कल्पसूत्र दि प्रसिद्ध हैं । सतरहवीं शताब्दी की चित्रकला शैली में एक नया मोड़ आया. इस में अन्यान्य धाराएं आकर मिली और परम्पररागत लेखक-चित्रकारों के अतिरिक्त अन्यान्य कलाकार भी आ मिले । सं०१६१३ में जब चतुर्थ दादा युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने क्रियोद्धार द्वारा तीन सौ में से १६ यतिजनों को स्वीकार कर अवशिष्ट सभी को गृहस्थ-मथेरण-महात्मा बना दिया था। बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंहजी १च्छावत की इसमें विशिष्ट भूमिका थी । वे लोग जव गृहस्थ हो गए तो आजीविका का साधन जुटाना अनिवार्य था अतः उन्हें पठन-पाठन अध्यापन, लेखन तथा चित्रकारी का काम सौंपा गया। इसके
जिनभद्र युग की परिग्रह परिमाण विधि सं० १५०१ की स्वाक्षरों में तीन चित्र हैं । आचार्य महाराज की व्याख्यान सभा एवं नंदि रचना के समक्ष व्रत ग्रहण
और वासक्षेप लेते हुए सुन्दर चित्र हैं । इसी प्रकार योगविधि की प० १०२ की प्रति में आचार्य महाराज श्री जिनभद्र सूरि व जयसागरोपाध्याय के चित्र हैं । यह सं० १४८६
१४२]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org