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________________ सुरत के संयदपुरा स्थित नंदीश्वर द्वीप मन्दिर में लकड़ी के पाटिये पर १०८ फुट का शत्रुजय गिरिराज का चित्र बना हुआ है जिसमें आगन्तुक संघ एवं तत्कालीन सभी मन्दिरों अर्थात् वि० सं०१७८० से पूर्व की सभी ट्रंकों का दृश्य चित्रित है। इस कलापूर्ण चित्र को . आचार्य श्री ज्ञानविमलसूरि जी ने चित्रित करवाया था। काष्ठमय चित्रों में यह बड़ा महत्वपूर्ण है। श्री शत्रुजय गिरिराज दर्शन में लिखा है कि सं०१६७२ का सेठ शांति दास के समय का पट आनंद जी कल्याण जी को पेढो में विद्यनान है जिसका कुछ भाग 'मार्ग' में प्रकाशित हुआ है। कूटे के चित्र काष्ठ-चित्रों में ताड़पत्रीय ग्रन्थों के काष्ठफलक लगभग बारहवीं शती से उपलब्ध होते हैं। इन्हें विविध माप के ताडपत्रीय ग्रन्थों के लिए उसी माप के बनाए। जाते थे। इनमें लम्बाई के अनुपात में कई कक्षों में विभाजित कर सुन्दर बेलपत्तियों के हाँसियों सहित चित्रित किए जाते थे । आठ-नौ सौ वर्ष पूर्व के बने चित्रों में रंग की चमक आज की-सी विद्यमान हैं। इन काष्ठ-पट्टिकाओं में सर्वप्राचीन हमारे संग्रह की श्री जिनदत्तसूरिजी के आचार्यपद से पूर्व की है जिसमें आचार्य गुणसमुद्र सूरिजी के साथ मुनि सोमचन्द्र (जिनदत्तसूरि ) विराजमान हैं। इसके पश्चात् जिनवल्लभसूर और श्री जिनदत्तसूरि के चित्रों वाली कई काष्ठपट्टिकाए उपलब्ध हैं जिनमें से एक पट्टिका लोहावट के भण्डार में है। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल के साथ दादा श्री जिनदत्तसूरि के प्रबचन-सभा के चित्र वाली काष्ठपट्टिका जैसलमेर के ज्ञानभण्डार में है। वादिदेवसूरि और दिगम्बर कुमुदचंद्र के शास्त्रार्थ के भावों । की अत्यन्त सुन्दर काष्ठ-पट्टिकाए भी जैसलमेर के श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार की अमूल्य निधि थी जो मुनि जिनविजयजी ने लाकर भारतीय विद्या भवन में रखी । परन्तु आज वह बिड़लाजी के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है। जैसलमेर भण्डार में महावीर पंचकल्याणक चित्रपट्टिका, चतुर्विशति तीर्थकर मातृ-पट्टिकाए', आदिनाथ प्रभु के जीवन प्रसंग, चतुर्दशस्वप्न, जलक्रीड़ा एवं जिराफ आदि दुर्लभ प्राणियों की चित्रमय पट्टिकाए विद्यमान हैं। लौंकागच्छीय भण्डार की भगवती सूत्र की बारहवीं शती की ताड़पत्रीय प्रति की काष्ठ-पट्टिका में भगवान नेमिनाथ स्वामी के नौ भवों के चित्र हैं । इनके अतिरिक्त वेलपत्तियों आदि के चित्रयुक्त काष्ठपट्टिकाएं भी उपलब्ध है। पूर्वकाल में शत्रुजय तीर्थ पर सुन्दर काष्ठ की कोरणी व चित्र काम वाले मन्दिर थे, बाद में अग्नि उपद्रवादि के कारण उनके स्थान पर पत्थर एवं ईट-चूने द्वारा मन्दिरों का निर्माण होने लगा है। कागज की लुग्दी, वस्त्र खण्ड और चिकनी मिट्टी आदि के संयोग से निर्मित कूटे की कई प्रकार की वस्तुए बनायी जाती थी । इनमें देवालय, सिंहासन, डाबड़े, कलम-दान आदि विविध उपादान बनते थे जिनपर सुन्दर चित्रकारी भी की जाती थी। ऐसे डाबड़े आदि लगभग चार-पाँच सौ वर्ष प्राचीन भी पाये जाते हैं। इन सभी में मिट्टी का उपयोग नहीं होता था। हमारे संग्रह में ऐसे रंगीन कांच जड़े हुए व चित्रित सिंहासन व बड़े-बड़े हाथी भी विद्यमान है। एक छोटा कलम-दान कृष्णलीला के अत्यंत सुन्दर चित्रसंयुक्त है जिसकी चित्र शैली दक्षिण भारतीय कला से प्रभावित है। कई स्थानों में कूटे की बड़ी-बड़ी कोठियों में ग्रन्थ रखे जाते थे। ताड़पत्रीय चित्र यद्यपि सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थ स्वल्प मिलते हैं पर वे बड़े मूल्यवान हैं। प्राचीन ज्ञान भण्डारों में जो भी सचित्र ताड़पत्र पाये जाते हैं. वे जैन साहित्य की अमूल्य निधि हैं । दक्षिणापथ के ताडपत्रीय चित्रों के सम्बन्ध में आगे लिखा जा चुका है। पर उत्तर भारत के ताड़पत्र १४० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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