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________________ के पटों में सबसे बड़ा पट कलकत्ता जैन मन्दिर में है। जो १६४१६ फुट माप का है। टिप्पणकार में बने कर्म प्रकृति, बारह व्रत टीप, अनानुपूर्वी, शत्रुजय यात्रापट आदि १-२ फुट से लेकर ३०-३० फुट जितने लम्बे पाये जाते हैं । पाटग भण्डार का संग्रहणी टिप्पगक सं० १४५३ का लिखा हुआ १६६४११|| इच का है । पन्द्रहवीं शताब्दी तक के प्राचीन कई पंचतीर्थी पट भी पाये गए हैं। घण्टाकर्ण, ऋषिमण्डल आदि विविध प्रकार के यन्त्र आज भी लिखे जाते हैं और मन्दिरों में पाये जाते हैं । ताम्रपत्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख वसुदेव हिण्डी जैसे प्राचीन ग्रन्थ में पाया जाता है । सूरत के आगम-मन्दिर में ताम्र पर शास्त्र लिखाए गए हैं । बौद्धों ने हाथी दांत आदि का उपयोग ग्रन्थ लेखन में किया है, पर जैनों में उसके कांबी, ग्रन्थी, दावड़ा एवं स्थापनाचार्य (ठवणी) रूप में किया है, ग्रन्थ लेखन में नहीं। इसी प्रकार से चमड़े के सम्बन्ध में समझना चाहिए । ग्रन्थों के पुढे, पटड़ी, दावड़े आदि में उसका उपयोग हुआ है पर ग्रन्थ-लेखन में नहीं । भोजपत्र पर बौद्ध और वैदिक लोग अधिकांश लिखा करते थे, जैन ग्रन्थ अद्यावधि एक भी भोजपत्र पर लिखा नहीं मिलता। हां, यति लोगों ने पिछले दोतीन सौ वर्षों में मंत्र-तंत्र-यंत्रों में उसका उपयोग भले किया हो। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद व संयुक्तागम अवश्य ही भोजपत्र पर लिखे दूसरी से चौथी शताब्दी के माने गये हैं। शिलापट्ट पर लिखे जेनेतर नाटकादि अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं पर जैन ग्रन्थों में उन्नतिशिखर पुराण सं० १२२६ का लिखा हुआ वीजोल्या में है। श्री जिनवल्लभसूरिजी ने चित्रकूटीय प्रशस्ति आदि ग्रन्थ खुदवा कर मन्दिरों ' में लगवाया था। इसके सिवा मन्दिरों के प्रतिष्ठा लेख, विस्तृत श्लोकबद्ध प्रशस्ति काव्य, कल्याणक पट, तर पट्टिका, स्थविरावली पट्टक, लोकनाल, ढाई द्वीप, शतदलपद्म यंत्र पट्टक. समवसरण पट्ट, नंदीश्वर पट्ट, शत्रुजय, गिरनारादि पट्ट प्रचर परिमाण में बने पाये जाते हैं। बीसवीं शताब्दी में सागरानन्दसूरिजी ने पालीताना एवं सूरत के आगम-मन्दिरों में सभी आगम माल एवं ताम्रपट्टों पर लिखवा दिये हैं तथा वर्तमान में समयसारादि दिगम्बर ग्रन्थ भी लिखवाए जा रहे हैं। वृक्ष की छाल का उपयोग जैनेतर ग्रन्थों में प्राप्त हुआ है। अगरु छाल पर सं० १७७० में लिखी हुई ब्रह्मवैवर्त पुराण की प्रति बड़ौदा के ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में है। हमारे संग्रह में कुछ बंगला लिपि के ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें लकड़ी के फलक का उपयोग हुआ है तथा उनके पूठे वृक्ष की छाल व वांस पट्टी के बने हये हैं। जैन ग्रन्थों में ऐसे उपादानों का उपयोग नहीं हुआ है। ताड़पत्र-ये ताल या ताड़ वृक्ष के पत्ते हैं। ताड़ वृक्ष दो प्रकार के होते हैं (१) खरताड़ और (२) श्रीताड़। खरताड़ के पत्ते लम्बाई और चौड़ाई में छोटे और चटक जाने वाले अल्पायु के होते हैं अतः इनका उपयोग ग्रन्थ लेखन में नहीं होता । श्री.ताड़ के वृक्ष मद्रास, ब्रह्मदेश आदि में होते हैं जिसके पत्ते बड़े चिकने, लचीले और टिकाऊ होते हैं । ये ताड़पत्र ग्रन्थ-लेखन के काम आते हैं। इन्हें प्रद हो जाने पर सीधा करके एक साथ जमीन में डाल कर सुखाया जाता है जिससे इनका रस धुप के साथ न उड़ कर उसी में रहता है और कोमलता आ जाती है । ये पत्ते लम्बाई में ३७ इंच तक के मिलते हैं । पाटन के भण्डार की प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रति ३७ इंच लम्बी है । ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, स्वर्णपत्र, कांस्यपत्र, पंचधातु पत्रादि का प्रयोग अधिकांश मंत्र और यन्त्र लेखन में हुआ है । राजाओं के दानपत्र ताम्रपत्रों पर लिखे जाते थे। जैन शैली में नवपद यंत्र, विंशतिस्थानक यंत्र, 18 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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