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कागज--इसे संस्कृत में कागद या कद्गल नाम से और गुजराती में कागल नाम से सम्बोधित किया जाता है। जैसे आजकल विविध प्रकार के कागज आते हैं; प्राचीन काल में भी भिन्न-भिन्न देशों में बने विविध प्रकार के मोटे-पतले कागज होते थे। कश्मीर, दिल्ली, बिहार, मेवाड़, उत्तर प्रदेश (कानपुर ), गुजरात ( अहमदाबाद) खंभातदेवगिरि (कागजीपुरा), उड़ीसा (वालासोर ) आदि के विविध जाति के कागजों में विशेषतः कश्मीरी, कानपुरी, अहमदावादी व्यवहार में आते हैं। कश्मीरी कागज सर्वोत्तम होते हैं। प्राचीन ज्ञानभण्डारों में प्राप्त १४वीं. १५वीं शताब्दी के कागज आज के-से बने हुए लगते हैं पर १८वी, १९वीं शताब्दी के कागजों में टिकाऊपन कम है। मिल के कागज तो बहुत कम वर्ष टिक पते हैं।
ग्रन्थादि सुगमता से लिखे जा सकते थे। पाटण भण्डार के वस्त्र पर लिखित ग्रन्थ खादी को दुहरा चिपका कर लिखा हुआ है ।
टिप्पगक-जन्म-कुण्डली, अणुपूर्वी, विज्ञप्ति-पत्र, बारहव्रतटीप आदि Scroll कागज के लीरों को चिपका कर तयार करते तथा कपड़े के लम्बे थान में वे आवश्यकतानुसार बना कर उसके साथ चिपका कर या खाली कागज पर लिखे जाते थे, जिन पर किए हु१ चित्रादि सौ-सौ फुट लम्बे तक के पाये जाते हैं।
साखन .
काष्ठ-पट्टिका-काष्ठ की पट्टियां कई प्रकार की होती थीं। काष्ठ की पट्टियों को रंग कर उस पर वर्णमाला आदि लिखी हुई 'बोरखा पाटी' पर अक्षर सीखनेजमाने में काम लेते थे। खड़ी मिट्टी के घोल से उस पर लिखा जाता था तथा ग्रन्थ निर्माण के कच्चे खरड़े मी पाटियों पर लिखे जाते थे। उत्तराध्ययन वृत्ति (सं. ११२९ ) को नेमिचन्द्राचार्य ने पट्टिका पर लिखा था जिसे सर्व देव गणि ने पुस्तकारूढ़ किया था। खोतान प्रदेश में खरोष्टी लिपि में लिखित कई प्राचीन काष्ठ पट्टिकाए प्राप्त हुई हैं।
कागज काटना-आजकल की भाँति इच्छित माप के कागज न वनकर प्राचीन काल में बने छोटे-मोटे कागजों को पेपर कटिंग मशीनों के अभाव में अपनी आवश्यकतानुसार काटना होता था और उन्हें वांस या लोहे की चीपों में देकर हाथ से काटा जाता था।
घोटाई-ग्रन्थ-लेखन योग्य देशी कागजों को घोटाई करके काम में लेते थे जिससे उनके अक्षर फटते नहीं थे । यदि वरसात की सील में पॉलिश उतर जाती तो उन्हें फिर से घोटाई करनी पड़ती थी । कागजों को फिटकड़ी के जल में डूबो कर अधसूखा होने पर अकीक कसौटी आदि के घंटे-ओपणी से घोट कर लिखने के उपयुक्त कर लिये जाते थे। आजकल के मिल-कारखानों के निर्मित कागज लिखने के काम नहीं आते । वे दिखने में सुन्दर और चमकदार होने पर भी शीघ्र गल जाते हैं।
लेखनी-आजकल लेखन कार्य फाउण्टेनपेन, डॉटपेन आदि द्वारा होने लगा है पर आगे होल्डर. पेन्सिल आदि का अधिक प्रचार था । इससे पूर्व बांस, वेत, दालचीनी के अण्ट इत्यादि से लिखा जाता था। आजकल उसकी प्रथा अल्प रह गई है, पर हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखने में आज भी कलम का उपयोग होता है । कागज. ताड़पत्र पर लिखने के उपयुक्त ये लेखनियां थीं, पर कर्नाटक, सिंहल, उत्कल, ब्रह्मदेशादि में जहां उत्कीर्णित करके लिखा जाता है वहाँ लोहे की लेखनी प्रयुक्त होती थी। कागजों पर यंत्र व लाइनें बनाने के लिये जुजवल का प्रयोग किया जाता था जो लोहे के चिमटे के आकार की होती थी। लौह लेखनी में दोनों तरफ ये भी लगे रहते थे । आजकल के होल्डर की निबें इसी का विकसित
वस्त्रपट-कपड़े पर यन्त्र, टिप्पण आदि के लिए उसे गेहूँ या चावल की लेई द्वारा छिद्र वन्द होने पर सुखाकर के घोटाई कर लेते । जिस पर चित्र, यंत्र.
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