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________________ । रूप कहा जा सकता है । कलमों के घिस जाने पर उसे चाकू से पतला कर दिया जाता था तथा बीच में खड़ा चीरा देने से स्याही उसमें से उतर आने में सुविधा होती है। निबों में यह प्रथा कलम के चीरे का ही रूप है। लेखनियों के शुभाशुभ कई प्रकार के गुण दोषों को बताने वाले श्लोक पाये जाते हैं जिनमें उनकी लम्बाई, रंग, गांठ आदि से ब्राह्मणादि वर्ण, आयु, धन, संतानादि हानि वृद्धि आदि के फलाफल लिखे हैं उनकी परीक्षा पद्धति ताड़पत्रीय युग की पुस्तकों से चली आ रही है । रत्नपरीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत. लाल और काले रंग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की भाँति लेखनी के भी वर्ण समझना चाहिए । इसका उपयोग कैसे व किस प्रकार करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथाओं पर प्रकाश डालता है। वतरणा-लेखनी-कलम की भाँति यह शब्द मी लिखने के साधन का द्योतक है । लिपि को लिप्यासन पर 'अवतरण करने के संस्कृत शब्द से यह शब्द बनना संभव है। काष्ठ की पाटी जिसे तेलिया पाटी कहते थे, धूल डाल कर लिखने का साधन वतरणा था । फिर स्लेट की पाटी पर वटीन व गत्ते की पाटी पर लिखने की स्लेट पेंसिल को भी भाषा में वतरणा कहते हैं । ललितविस्तर के लिपिशाला संदर्शन परिवर्त में 'वर्णातिरक' से वतरणा बनने का कुछ लोग अनुमान करते हैं । था। विविध शिल्पी लोग भी इसका उपयोग करते हैं। ओलिया फांटियां-कागज की प्रतियां लिखते समय सीधी लकीरें जिसके प्रयोग में आती है वह गुजरात में ओलिया व राजस्थान में फांटिया कहलाता है। लकड़ी के फलक या गत्ते के मजबूत पूठे पर छेद कर मजवूत सीधी डोरी छोटे बड़े अक्षरों के चौड़े-संकरे अन्तरानुसार उभय पक्ष में कसकर बांध दी जाती है और उस पर इमली, चावल या रंग-रोगन लगाकर तैयार किये फांटिये पर कागज को रख कर अंगुलियों द्वारा टान कर लकीर चिन्हित कर ली जाती है। ताडपत्रीय प्रतियों पर फांटिये का उपयोग न होकर छोटी-सी विन्दु सीधी लकीर आने के लिए कर दी जाती थी। श्रावकातिचार में लेखन-ज्ञानोपकरण में इसे ओलिया लिखा है। राजस्थान में आजकल कागज के लम्बे टुकड़े को ओलिया कहते हैं जिस पर चिट्ठी लिखी जाती है। कविका-ताड़पत्रीय लेखनोपकरण के प्रसंग में ऊपर कांबी के विषय में बतलाया जा चुका है । आजकल फुट की भांति चपटी होने से माप करके हांसिये की लकीर खींचने व ऊपर अंगुलियाँ रख कर लिखने के प्रयोग में आने वाला यह उपकरण है । यह वांस, हाथीदांत या चन्दन काष्ठादिक की होती है। . जुजवल-इस विषय में ऊपर लेखनी के संदर्भ में लिखा जा चुका है । इसका स्वतन्त्र अस्तित्व था और संस्कृत 'युगबल' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति संभव है। यह चिमटे के आकार की दोनों ओर लगी लेखनी वाली लोह-लेखनी थी । पुराने लहिये इसका प्रयोग लेखन समय में हांसिया आदि की लाल लकीरें खींचने में किया करते थे। लिपि की स्वरूप दर्शिका-स्याही या रंग-पुस्तक लिखने के अनेक प्रकार के रंग या स्याही में काला रंग प्रधान है। सोना, चांदी और लाल स्याही से भी ग्रन्थ लिखे जाते हैं पर सोना, चांदी की महर्च्यता के कारण उसका प्रयोग अत्यल्प परिमाण में ही विशिष्ट शास्त्र लेखन में श्रीमन्तों द्वारा होता था । लाल रंग का प्रयोग बीच-बीच में प्रकरण समाप्ति व हांसिए की रेखा में तथा चित्रादि आलेखन में सभी रंगों का प्रयोग होता था। एक दूसरे रंग के मिश्रण द्वारा कई रंग तैयार हो जाते हैं। पूर्वकाल में ताड़पत्र, कागज आदि पर लेखन हेतु किस प्रकार स्याही बनती थीं-इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता प्राकार-चित्रपट, यंत्र आदि लेखन में गोल आकृति बनाने में आजकल के कम्पास की भाँति प्रयोग में आता ८६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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